________________ मिथ्यात्व मोहनीय के पुद्गल सर्वघाती रसवाले होते हैं / उसके एक स्थानक, द्वि स्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक ये चार भेद कर सकते हैं / उदा. नीम के 1 किलो रस में जो कड़वापन होता है, उसे एक स्थानक रस कह सकते हैं / उसी रस को अग्नि पर तपा कर आधा कर दिया जाय तो उसे द्विस्थानक रस कहते हैं / उसी रस के भाग को तपाकर जला दिया जाय तो उसे त्रिस्थानक रस कहते हैं और 2 भाग जला दिया जाय तो उसे चतुःस्थानक रस कहा जाता है। शुभ अथवा अशुभ कर्म में फल देने की तीव्रतम शक्ति को चतुः स्थानक, तीव्रतर शक्ति को त्रिस्थानक, तीव्र शक्ति को द्वि स्थानक और मंद शक्ति को एक स्थानक कहा जा सकता है | समकित मोहनीय में फल देने की एक स्थानक, मिश्र मोहनीय में द्विस्थानक तथा मिथ्यात्व मोहनीय में द्विस्थानक, त्रिस्थानक व चतुःस्थानक तीनों प्रकार की शक्ति होती है / जिअ अजिअ पुण्ण पावा-सव संवर-बंध मुक्ख-निज्जरणा / जेणं सद्दहय तं, सम्मं खइगाइ बहु भेयं ||15 / / शब्दार्थ जिअ जीव, अजिअ अजीव , पुण्ण पुण्य , पाव=पाप, आसव आस्रव, संवर=संवर, बंध=बंध, मुक्ख=मोक्ष , निज्जरणा=निर्जरा, जेणं जिस कारण से, सद्दहय-श्रद्धा करता है, तंवह, सम्म सम्यक्त्व, खइगाइ क्षायिक आदि, बहुभेयं बहुत से भेदवाला है / भावार्थ जिस कारण से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव , संवर, बंध, मोक्ष और निर्जरा तत्त्व पर श्रद्धा होती है वह सम्यक्त्व , क्षायिक आदि अनेक प्रकार का है / कर्मग्रंथ (भाग-1)) 133