________________ नौ तत्त्व 1) जीव : जिसमें चेतना हो, उसे जीव कहते हैं अथवा जो प्राणों को धारण करे, उसे जीव कहते हैं / प्राण दो प्रकार के हैं 1) द्रव्य प्राण और 2) भाव प्राण | मोक्ष में गई आत्माओं में सिर्फ भाव प्राण होते हैं / संसारी जीवों को द्रव्य और भाव , दोनों प्राण होते हैं / इसके मुख्य 14 भेद हैं | 2) अजीव : जिसमें चेतना नहीं हो, उसे अजीव कहते हैं। 3) पुण्य : जिसके उदय से जीव को पाँच इन्द्रियों के अनुकूल सुख की सामग्री प्राप्त होती हो, उसे पुण्य कहते हैं | 4) पाप : जिस कर्म के उदय से जीव को पाँच इन्द्रियों के प्रतिकूल सामग्री की प्राप्ति होती हो, उसे पाप कहते हैं | 5) आस्रव : आत्मा में शुभ अथवा अशुभ कर्म के आगमन के द्वार को आस्रव कहते हैं। 6) संवर : आरत्रव के निरोध को संवर कहा जाता है / इसके बयालीस भेद हैं। 7) बंध : आस्रव के द्वारा आए हुए कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ क्षीर-नीर की तरह परस्पर मिल जाना, उसे बंध कहते हैं | 8) निर्जरा : आत्मा पर लगे हुए कर्मों का आत्मा से अलग होना, उसे निर्जरा कहते हैं। 9) मोक्ष : आत्मा पर लगे संपूर्ण कर्मों के क्षय को मोक्ष कहते हैं। इन नौ तत्त्वों में जीव-अजीव ज्ञेय स्वरूप हैं / पाप, आस्रव और बंध हेय स्वरूप हैं तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय स्वरूप हैं | * व्यावहारिक दृष्टि से पुण्य उपादेय स्वरूप माना गया है और नैश्चयिक दृष्टि से पुण्य हेय स्वरूप माना गया है / सर्वज्ञ भगवंतों ने जो तत्त्व जिस रूप में कहा है, उसे उसी स्वरूप में मानना उसे सम्यक्त्व कहते हैं। सम्यक्त्व के कारण ही ज्ञान, सम्यग्ज्ञान बनता है / सम्यक्त्व के कारण ही चारित्र, सम्यक चारित्र बनता है / सम्यक्त्व के अभाव में होनेवाला ज्ञान भी अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान कहलाता है तथा चारित्र भी कायकष्ट कहलाता है। (कर्मग्रंथ (भाग-1) 134E