________________ 16 कषाय तथा 9 नोकषाय / कष् अर्थात् संसार, आय अर्थात् लाभ ! जिस प्रवृत्ति से आत्मा के संसार की वृद्धि हो, उसे कषाय कहा जाता है / क्षमा, नम्रता, सरलता और संतोष रूप आत्मा के गुणों को ढकने का काम ये कषाय करते हैं। कषाय के मुख्य चार भेद हैं / 1) क्रोध : समता भाव छोडकर किसी पर गुस्सा करना, उसे क्रोध कहा जाता है / अपनी इष्ट वस्तु कोई चुरा लेता है, तोड़ देता है, तब क्रोध पैदा होता है / कोई अपने साथ कटु व्यवहार करता है, तब क्रोध पैदा होता है / चारित्र मोहनीय कर्म के उदय के कारण क्रोध पैदा होता है। 2) मान : पुण्य के उदय से प्राप्त सामग्री का अहंकार करना, उसे मान कहते हैं / यह अभिमान पैदा होने पर नम्रता चली जाती है / यह मान भी चारित्र मोहनीय के उदय की ही पैदाइश है | 3) माया : किसी वस्तु को पाने के लिए, किसी को ठगने की वृत्ति को माया कहते हैं | माया करने से सरलता गुण का नाश होता है / चारित्र मोहनीय के उदय से ही माया की प्रवृत्ति होती है | 4) लोभ : प्राप्त सामग्री में असंतोष और अधिक से अधिक पाने की लालसा को लोभ कहते हैं / लोभ से संतोष गुण का नाश होता है / चारित्र मोहनीय के उदय से ही लोभ वृत्ति पैदा होती है। इन मुख्य चार कषायों के परिणाम जब तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और मंद होते हैं, तब वे ही क्रमशः अनंतानुबंधी , अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कहलाते हैं / 1-4 अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ | 5-8 अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ | 9-12 प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ | 13-16 संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ / इस प्रकार कषाय के कुल 16 भेद हुए / कर्मग्रंथ (भाग-1)) 138