________________ 3) प्रत्याख्यानीय लोभ : यह लोभ बैलगाड़ी के पहिये के कीचड़ के समान है, जो थोड़ी कठिनाई से दूर होता है / ___4) अनंतानुबंधी लोभ : जैसे किरमिची का रंग लगने पर कभी छूटता नहीं है / उसी प्रकार अनेक उपाय करने पर भी जिस लोभ के परिणाम दूर नहीं होते हैं, वह अनंतानुबंधी लोभ है / नो कषाय का स्वरूप जस्सुदया होइ जिए, हास रइ-अरई सोग भय कुच्छा / सनिमित्तमन्नहा वा, तं इह हासाइ मोहणीयं / / 21 / / शब्दार्थ जस्सुदया जिसके उदय, होइ-होता है, जिए-जीव में , हास हास्य, रइरति, अरइअरति, सोग-शोक, भयभय, कुच्छा दुगुंछा , सनिमित्तम् निमित्त सहित, अन्नहा=अन्यथा, वा=अथवा , तं-वह, इह यहाँ, हासाइ-हास्य आदि मोहणीयं-मोहनीय / गाथार्थ __जिस कर्म के उदय से जीव को कारण या बिना कारण हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा के भाव पैदा होते हैं, उन्हें नोकषाय मोहनीय के हास्य आदि नौ भेद समझने चाहिए / विवेचन ___ कषायों के साथ रहकर अपना विपाक बताने वाले नोकषाय कहलाते हैं अथवा कषायों को प्रेरित करे, उसे नोकषाय कहते हैं / 1) हास्य : भांड आदि की चेष्टा देखकर अर्थात् निमित्त पाकर जो हँसी आती है अथवा भूतकाल के प्रसंग को याद कर बिना कारण ही जो हँसी आ जाती है, उसे हास्य मोहनीय कहते हैं / 2) रति : जिस कर्म के उदय से अनुकूल सामग्री मिलने पर मन में जो प्रीति भाव पैदा होता है, उसे रति मोहनीय कहते हैं | ____3) अरति : जिस कर्म के उदय से प्रतिकूल सामग्री मिलने पर मन कर्मग्रंथ (भाग-1)) 145