________________ चारित्र-मोहनीय) सोलस कसाय नव नोकसाय, दुविहं चरित्त मोहणीयं / अण-अप्पच्चक्खाणा, पच्चक्खाणा य संजलणा ||17 / / शब्दार्थ ___ सोलस सोलह, कसाय कषाय, नव-नौ, नोकसाय नोकषाय, दुविहं दो प्रकार, चरित्तमोहणीयं चारित्र मोहनीय, अण अनंतानुबंधी, अप्पच्चक्खाणा अप्रत्याख्यानीय, पच्चक्खाणा-प्रत्याख्यानीय, य तथा, संजलणा=संज्वलन / भावार्थ ___ चारित्र मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद हैं-सोलह कषाय और नौ नोकषाय ! कषाय के मुख्य चार भेद-अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय और संज्वलन / विवेचन वीतरागता अर्थात् यथाख्यात चारित्र, यह आत्मा का मूलभूत स्वभाव है / आत्मा के उस स्वभाव पर आवरण लाने का काम चारित्र मोहनीय करता सिद्ध और 14 वें गुणस्थानक में रहे अयोगी केवली भगवंतों को मन, वचन और काययोग का अभाव होने से वहाँ व्यवहार चारित्र नहीं है किंतु मोहनीय कर्म का संपूर्ण क्षय होने के कारण स्वगुण में रमणता व स्थिरता रूप नैश्चयिक चारित्र होता है / संसार में रही वीतरागी आत्माओं को प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप यथाख्यात . चारित्र होता है। इस चारित्र मोहनीय कर्म के उदय के कारण आत्मा में राग-द्वेष की परिणति तथा क्रोध आदि के विकार पैदा होते हैं | इस चारित्र मोहनीय के कुल 25 भेद हैं | कर्मग्रंथ (भाग-1), - 137 -