________________ उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर आत्मा अपने विशुद्ध अध्यवसाय द्वारा द्वितीय स्थिति में रहे मिथ्यात्व मोहनीय के दलिकों में से न्यूनाधिक प्रमाण में रस को घटा देती है, जिससे मिथ्यात्व मोहनीय के वे दलिक तीन भागों में विभक्त हो जाते हैं। 1) समकित मोहनीय : कोद्रव नाम का एक धान्य होता है, जिसको खाने से नशा चढ़ता है, परंतु उस कोद्रव धान्य के छिलके उतार दिए जाँय और उन्हें छाछ से धो दिया जाय तो उनमें रही मादक शक्ति बहुत कम हो जाती है | बस, कोद्रव के धान्य समान मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के पुद्गल होते हैं, जो आत्मा को हिताहित की परीक्षा करने में बाधक होते हैं / इनमें सर्वघाती रस होता है, परंतु जीव अपने विशुद्ध अध्यवसायों द्वारा उन कर्मपुदगलों की सर्वघाती रस शक्ति को घटा देता है, फिर एक संस्थानक रस बाकी रहता है, उस एक स्थानक शक्तिवाले मिथ्यात्व मोहनीय के पुद्गलों को सम्यक्त्व मोहनीय कहा जाता है / इस कर्म का उदय जीव को औपशमिक और क्षायिक भाववाली तत्त्वरुचि में प्रतिबंध पैदा करता है / यद्यपि यह कर्म शुद्ध होने के कारण तत्त्वरुचि रूप सम्यक्त्व में व्याघात नहीं पहुँचाता है, फिर भी इस कर्म के उदय काल में औपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है / सूक्ष्म पदार्थ के विचार में शंका रहती है, जिससे सम्यक्त्व में मलिनता आती है। 2. मिश्र मोहनीय : कोद्रव के धान्य को आधा साफ किया जाय तो उसमें कुछ अंश में मादक शक्ति होती है और कुछ अंश में नहीं / इस प्रकार अध्यवसायों द्वारा अर्धशुद्ध बने मिथ्यात्व के दलिकों को मिश्र मोहनीय कहा जाता है / इस कर्म के उदय में जीव को न तो तत्त्व पर यथार्थ रुचि होती है और न ही अरुचि / 3. मिथ्यात्व मोहनीय : कोद्रव के अशुद्ध धान्य के पुंज को खाने से जिस प्रकार विकार पैदा होता है बस, इसी प्रकार अशुद्ध कोद्रव के धान्य समान मिथ्यात्व मोहनीय कर्म है, इस कर्म के उदय से जीव को सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग में श्रद्धा नहीं होती है / सर्वज्ञ प्रणीत जीव आदि नव तत्त्वों पर विश्वास नहीं होता है / / कर्मग्रंथ (भाग-1) 132