________________ उपशम सम्यक्त्व अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रही आत्मा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के भव में तथाभव्यत्व के परिपाक होने पर सर्वप्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए तीन करण करती है | यथा-प्रवृत्तिकरण : पर्वत से टूटा हुआ पत्थर नदी में टकराते टकराते गोल-मटोल हो जाता है, इसे 'नदी गोल पाषाण' कहते हैं / अर्थात् नदी में रहे इस गोल पत्थर को किसी व्यक्ति ने घड़कर गोल नहीं किया बल्कि सहजतया हो गया / बस, इसी 'नदी गोल पाषाण न्याय' की तरह संसार में भटकते-भटकते जब आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की स्थिति अंतः कोटा कोटि सागरोपम की हो जाती है अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति होती है, उस समय अनाभोग से अनायास उत्पन्न हुए आत्मा के शुभ परिणाम को यथाप्रवृत्तिकरण कहा जाता है | आत्मा जब यथाप्रवृत्तिकरण करती है, तब उसे 'ग्रंथिदेश' कहा जाता है / ग्रंथि अर्थात् गाँठ ! राग-द्वेष के तीव्र परिणाम को ग्रंथि कहा जाता है / अभव्य आत्मा भी अनेकबार इस ग्रंथिदेश तक आती है, परंतु इस ग्रंथि का भेद कभी नहीं करती है / ग्रंथि भेद करने की ताकत सिर्फ भव्य आत्मा में ही है। भव्य आत्मा भी अनेक बार ग्रंथिदेश तक आकर वापस चली जाती है / ग्रंथिदेश तक आनेवाली आत्मा ग्रंथिभेद करेगी ही, ऐसा एकांत नियम नहीं है। ___ अपूर्व-करण पहले कभी नहीं आए हुए ऐसे विशुद्ध अध्यवसाय को अपूर्वकरण कहते हैं / इसका काल अन्तर्मुहूर्त जितना ही है / जिस प्रकार तीक्ष्ण कुल्हाड़े से लकड़ी में रही गाँठ को भेदा जाता है उसी प्रकार अपूर्वकरण द्वारा आत्मा राग-द्वेष की तीव्र ग्रंथि (गाँठ) को भेदकर अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करती है | कर्मग्रंथ (भाग-1) 130