________________ मोहनीय कर्म आत्मा को अपराधी बनाता है / पाप से भी पाप का स्वीकार न करना, बडा अपराध है / पापी यदि अपने पाप का स्वीकार करे तो पापी का भी उद्धार हो सकता है, परंतु पाप करके भी जो पाप का स्वीकार नहीं करता है, पाप को खराब नहीं मानता है, मैंने जो किया, वह अच्छा किया / ऐसा ही मानता है, ऐसी आत्मा का कमी उद्धार नहीं हो सकता है। मोहनीय कर्म पाप का स्वीकार करने नहीं देता है / मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में शुभभाव, शुभ विचार ही पैदा नहीं होते हैं | मोहनीय कर्म ही आत्मा को कामी, क्रोधी, लोभी, रागी, द्वेषी आदि बनाता है। साधक और आराधक आत्मा को भी विचार-भ्रष्ट और आचार-भ्रष्ट बनाने का काम मोहनीय कर्म ही करता है। शराब के नशे में मदमस्त व्यक्ति को जैसे कुछ भान नहीं होता है, उसी प्रकार मोह के नशे में मत्त बने व्यक्ति को भी कुछ भान नहीं रहता है / कर्तव्य-अकर्तव्य , भक्ष्य-अभक्ष्य , पेय-अपेय आदि की भेदरेखा उसके पास नहीं होती है। इस मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद हैं- 1) दर्शन मोहनीय और 2) चारित्र मोहनीय / आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण को घात करने वाले कर्म को दर्शन मोहनीय कहते हैं / इस कर्म के उदय से आत्मा में जिनवचन पर सच्ची श्रद्धा ही पैदा नहीं होती है / इस कर्म के उदय से आत्मा में मिथ्यात्व की प्रबलता रहती है। सर्वज्ञ भगवंतों ने जो कहा है, उससे विपरीत मानने का कार्य मिथ्यात्व करता है। आत्मा में रहे चारित्र गुण को नष्ट करने का काम चारित्र मोहनीय करता है / इस कर्म के उदय से आत्मा जिनाज्ञानुसारी प्रवृत्ति नहीं कर पाती है | (कर्मग्रंथ (भाग-1)) 1283E