________________ अवधिज्ञान कहते हैं। 6) अप्रतिपाती अवधिज्ञान : जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के बाद कभी नष्ट होने वाला नहीं हो, उसे अप्रतिपाती अवधिज्ञान कहते हैं / ऐसा अवधिज्ञानी संपूर्ण लोक तथा अलोक के एक आकाश प्रदेश को भी देख-जान सकता है / यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान बारहवें गुणस्थानवी जीवों को अंत समय में होता है और उसके बाद तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त होने के प्रथम समय के साथ केवलज्ञान पैदा हो जाता है / सामान्य से चारों गतियों के जीवों को अवधिज्ञान हो सकता है, परंतु मनुष्य को अवधिज्ञान के सभी छह भेद घट सकते हैं / तिर्यंचों को अप्रतिपाती अवधिज्ञान नहीं होता है। द्रव्य से अवधिज्ञानी अनंत रूपी द्रव्यों को जानते-देखते हैं और उत्कृष्ट से सभी रूपी द्रव्यों को जानते हैं / क्षेत्र से अवधिज्ञानी जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने क्षेत्र को जानते हैं और उत्कृष्ट से लोक जितने असंख्य खंडों को जान सकते हैं | काल से अवधिज्ञानी आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल में हुए रूपी द्रव्यों को जान-देख सकते हैं तथा उत्कृष्ट से असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में हुए पदार्थों को जान-देख सकते हैं | भाव से अवधिज्ञानी जघन्य से रूपी द्रव्यों की अनंत पर्यायों को और उत्कृष्ट से भी रूपी द्रव्यों की अनंत पर्यायों को देख-जान सकते हैं / मनःपर्यवज्ञान : ढाई द्वीप में रहे संज्ञी प्राणियों के मनोगत भावों को मनःपर्यवज्ञानी जान सकता है / इसके दो भेद हैं 1) ऋजुमति : दूसरे के मन में रहे पदार्थ के सामान्य स्वरूप को जानना, अर्थात् विषय के सामान्य स्वरूप को जानना, ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। ___2) विपुलमति : दूसरे के मन में रहे पदार्थ के विशेष स्वरूप को जानना, विपुलमति मनःपर्यवज्ञान कहलाता है / द्रव्य से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान, मनोवर्गणा के अनंत प्रदेशवाले स्कंधों को जानता है, जबकि विपुलमति, ऋजुमति की अपेक्षा अधिक प्रदेशवाले स्कंधों को विशुद्ध रूप से कर्मग्रंथ (भाग-1), 8112