________________ ष चक्र के उत्कृष्ट से रत्नप्रभानी जघन्य से है जानता-देखता है / क्षेत्र से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को और उत्कृष्ट से रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्षुल्लक प्रतर को और ऊपर ज्योतिष चक्र के ऊपरितल पर्यंत और तिरछे ढाई द्वीप पर्यंत संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानता है, जब कि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा तिरछी दिशा में ढाई अंगुल अधिक, संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानता है / काल से ऋजुमति जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट से भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग भूत, भविष्य के मनोगत भावों को जानता देखता है और विपुलमति , ऋजुमति की अपेक्षा कुछ अधिक काल के मनोगत भावों को विशुद्ध रूप में देखता है / भाव से ऋजुमति मनोगत भावों के असंख्य पर्यायों को जानता देखता है और विपुलमति , ऋजुमति की अपेक्षा कुछ अधिक पर्यायों को विशुद्ध रूप में जानता-देखता है। ऋजुमति ज्ञान उत्पन्न होने के बाद कभी नष्ट भी हो सकता है जबकि विपुलमति जाता नहीं है, अर्थात् विपुलमति मनःपर्यवज्ञान के बाद अवश्य केवलज्ञान की प्राप्ति होती है / तारक अरिहंत परमात्मा जब दीक्षा अंगीकार करते हैं, तब उन्हें चौथा मनःपर्यवज्ञान पैदा होता है / अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान में अंतर : 1) अवधिज्ञानी रूपी द्रव्यों को स्पष्ट जानता है, अतः विशुद्ध है, जबकि मनःपर्यवज्ञानी मनोगत भावों को अत्यंत स्पष्ट जानता है, अतः विशुद्धतर है। 2) अवधिज्ञानी अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर संपूर्ण लोक में रहे रूपी द्रव्यों को जान सकता है, जबकि मनःपर्यवज्ञानी ढाई द्वीप में रहे संज्ञी जीवों के मन के विचारों को जान सकता है | 3) अवधिज्ञान चारों गतियों में हो सकता है जबकि मनःपर्यवज्ञान अप्रमत्त संयमी मनुष्य को ही होता है | 4) अवधिज्ञानी कतिपय पर्यायों के साथ संपूर्ण रूपी द्रव्यों को जानता कर्मग्रंथ (भाग-1)) E113