________________ जलचर प्राणी, मछली आदि के रूप में पैदा होता है तो उसे तैरना आ जाता है, बस, इसी प्रकार देव और नरक के भव को प्राप्त करते ही जो अवधिज्ञान हो जाता है, उसे भव प्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं | देव और नारक को होनेवाले अवधिज्ञान में अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम भी काम करता है, परंतु उसकी गौणता होने से भव की मुख्यता कही गई है। 2. गुणप्रत्यय अवधिज्ञान : रत्नत्रयी की आराधना के फलस्वरूप मनुष्य और तिर्यंचों को जो अवधिज्ञान पैदा होता है, उसे गुण-प्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं। इस अवधिज्ञान के छह भेद हैं 1) आनुगामिक अवधिज्ञान : जो अवधिज्ञान उत्पत्ति क्षेत्र को छोड़कर अन्य क्षेत्र में जाने पर भी नष्ट नहीं होता है, बल्कि साथ में ही चलता है, उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं / इस अवधिज्ञान द्वारा जीव अपने चारों ओर के संख्य असंख्य योजन में रहे रूपी द्रव्यों को जान सकता है / 2) अननुगामी अवधिज्ञान : जिस स्थल में जीव को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो, उसी क्षेत्र में रहने पर जो अवधिज्ञान रहता हो उसे अननुगामी कहते हैं अर्थात् उत्पत्ति क्षेत्र से अन्य क्षेत्र में जाने पर जो अवधिज्ञान साथ में नहीं चलता हो उसे अननुगामी अवधिज्ञान कहते है / 3) वर्धमान अवधिज्ञान : जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अल्प विषयवाला हो और बाद में क्रमश: बढ़ता जाता हो, उसे वर्धमान अवधिज्ञान कहते हैं / 4) हीयमान अवधिज्ञान : जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषयवाला होने पर भी परिणामों की अशुद्धि के कारण धीरे-धीरे अल्पअल्पतर विषयवाला बनता हो, उसे हीयमान अवधिज्ञान कहते हैं / 5) प्रतिपाती अवधिज्ञान : जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद हवा के झोंके से बुझनेवाले दीपक की भाँति, समाप्त होनेवाला हो उसे प्रतिपाती कर्मग्रंथ (भाग-1) 4111