________________ के गरीब संगम को समृद्धि के शिखर पर पहुँचाकर शालिभद्र बनानेवाला यही शाता वेदनीय कर्म था / उपमा : वेदनीय कर्म को मधुलिप्त तलवार की उपमा दी गई है / मधुलिप्त तलवार को चाटने में सुख का अनुभव होता है, परंतु उसी के साथ जीभ कट जाय तो अपार वेदना का भी अनुभव हुए बिना नहीं रहता है / शाता वेदनीय सुख देता है तो अशाता वेदनीय दुःख / ओसन्नं सुर-मणुए, सायमसायं तु तिरिअ निरएसु / मज्जं व मोहणीअं, दु-विहं दंसण-चरण मोहा ||13|| शब्दार्थ ओसन्नं प्रायः करके / सुर-मणुअ=देव और मनुष्य में | सायं-शाता (वेदनीय) / असायं अशाता वेदनीय , तु=और / तिरिअ-निरएसु-तिर्यंच और नरक गति में, मज्जं=मदिरा | व=उसके जैसा / मोहणी=मोहनीय , दुविहं दो प्रकार | दंसण-चरण मोहा=दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय / भावार्थ अधिकांशतः देव और मनुष्य को शाता वेदनीय और नारक और तिर्यंचों को अशाता वेदनीय का उदय होता है / मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ! यह मोहनीय कर्म मदिरा पान के समान है / विवेचन वेदनीय कर्म के उदय से जीव को इन्द्रिय विषय-जन्य सुख-दुःख की अनुभूति होती है / यद्यपि वेदनीय कर्म की दोनों प्रकृतियाँ-शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय परावर्तमान प्रकृति हैं / परावर्तमान अर्थात् परिवर्तनशील ! कभी शातावेदनीय का उदय तो कभी अशाता वेदनीय का उदय / फिर भी बहुलता की अपेक्षा से कह सकते हैं कि देवता और मनुष्यों कर्मग्रंथ (भाग-1))