________________ / दूसरा दर्शनावरणीय कर्म) जगत् में रहे समस्त पदार्थों में सामान्य धर्म और विशेष धर्म रहे हुए है / वस्तु में रहे सामान्य धर्म के बोध को दर्शन कहा जाता है और वस्तु में रहे विशेष बोध को ज्ञान कहा जाता है | __ वस्तु में रहे सामान्य गुण के बोध को रोकने वाला कर्म दर्शनावरणीय कहलाता है और वस्तु में रहे विशेष गुण के बोध को रोकने वाला कर्म ज्ञानावरणीय कहलाता है / ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के बंध के हेतु समान ही हैं / जिस प्रवृत्ति से ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृति का बंध होता है, उसी प्रवृत्ति से दर्शनावरणीय कर्म का भी बंध होता है | दर्शनावरणीय कर्म के बंध की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण है | उपमा : दर्शनावरणीय कर्म द्वारपाल के समान है / कोई व्यक्ति राजा से मिलना चाहता हो, परंतु द्वारपाल की इच्छा न हो तो वह उसे बाहर ही द्वार पर रोक देता है / बस, इसी प्रकार यह कर्म भी आत्मा में रही दर्शन शक्ति को रोक देता है। चक्षु दिट्ठी अचक्षु-सेसिंदिअ ओहि केवलेहिं च / दसणमिह सामन्नं तस्सावरणं तयं चउहा ||10|| शब्दार्थ चक्षु आँख , दिट्ठी-दृष्टि, अचक्षु-चक्षु सिवाय , सेसिंदिय=शेष इन्द्रियाँ, ओहि अवधि, केवलहिं केवल द्वारा, दंसणमिह यहाँ दर्शन, सामन्नं सामान्य, तस्सावरणं उसका आवरण, तयं-वह, चउहा=चार प्रकार, गाथार्थ चक्षु अर्थात् आँख , अचक्षु अर्थात् शेष इन्द्रियाँ, अवधि और केवल कर्मग्रंथ (भाग-1) Rela 119