________________ 8. तदुभय-सूत्र के सही उच्चारण के साथ-साथ उसके सही अर्थ को नजर समक्ष लाना चाहिए / सूत्र-अर्थ का सही कथन करना चाहिए / ज्ञान के इन आठ आचारों का पालन करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम होता है / स्वाध्याय के पाँच प्रकार 1. वाचना-बहुमान पूर्वक, गुरु को वंदन करके योग्य स्थान पर बैठकर ज्ञानी गुरुदेव के पास सूत्र व अर्थ की वाचना (पाठ) ग्रहण करनी चाहिए / गुरुदेव के वचनों को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए | 2. पृच्छना-गुरुदेव के पास जो पढ़ा हो, उसमें कहीं शंका पड़े तो विनयपूर्वक गुरुदेव को पूछना चाहिए, उसे पृच्छना कहते हैं / 3. परावर्तना-गुरुदेव के पास जो सूत्र-अर्थ ग्रहण कर कंठस्थ किए हों उन्हें पुनःपुनः याद करना चाहिए | 4. अनुप्रेक्षा-गुरुदेव के पास जो सूत्र-अर्थ आदि ग्रहण किया हो उस पर द्रव्य, गुण व पर्याय से, नय-निक्षेप से, नय-प्रमाण से अनुप्रेक्षा करनी चाहिए / अनुप्रेक्षा करने से पदार्थ स्थिर हो जाता है / 5. धर्मकथा-गुरुदेव के पास जो सम्यग् ज्ञान प्राप्त किया हो, वह ज्ञान दूसरों को देना, उसे धर्मकथा कहते हैं / ज्ञानावरणीय कर्म के उदय का फल 1. अज्ञानता | 2. मूर्खता / 3. स्मृति-भ्रंशता / 4. मूकता | ज्ञानावरणीय कर्म की उपमा जगत् में रहे कई पदार्थों को उपमा द्वारा भी समझाया जाता है | ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव आँख पर लगी पट्टी जैसा है / जिस प्रकार आँख पर मोटे कपड़े की पट्टी बाँध दी जाती है तो कुछ भी दिखता नहीं हैं, परंतु उस पट्टी में कहीं छेद हो जाय अथवा पट्टी का कपडा पतला हो तो कुछ दिखाई देता है / बस, इसी प्रकार जब ज्ञानावरणीय कर्म उदय में आता है, तब आत्मा में रहे ज्ञान गुण के ऊपर आवरण आ जाता है, परंतु ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो तो आत्मा में कुछ अंश में ज्ञान प्रगट होता है और उस कर्म का सर्वथा क्षय हो जाय तो आत्मा में अनंतज्ञान गुण प्रगट हो जाता है / कर्मग्रंथ (भाग-1)) ET 118