________________ उत्तर प्रकृति : कर्मों के अवांतर भेदों को उत्तर प्रकृति कहा जाता है / कर्मों की मूल प्रकृति आठ और उत्तर प्रकृति 158 हैं / कर्म के भेद इह नाण-दंसणावरण-वेय-मोहाउ-नाम-गोआणि / विग्धं च पण नव दु-अट्ठवीस-चउ-तिसय-दु-पण-विहं / / 3 / / शब्दार्थ इह-यहाँ, नाण-दसणावरण-ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय, वेय-वेदनीय, मोहाउ-मोहनीय, आयुष्य, नाम-नाम, गोआणि-गोत्र / विग्घं अंतराय, च-और, पण पाँच, नव-नौ, दु-दो, अट्ठवीस अट्ठाईस, चउ-चार तिसय-एक सौ तीन, दु-दो, पण पाँच, विहं प्रकार | सामान्य अर्थ __ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय कर्म के क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, एक सौ तीन, दो तथा पाँच भेद है / विवेचन : मिथ्यात्व आदि के द्वारा आत्मा जब कर्म का बंध करती है तो उस कर्मबंध के साथ ही उस कर्म में फल देने का स्वभाव भी निश्चित हो जाता है / कर्म के इस स्वभाव को ही मुख्यतया आठ भागों में बाँटा गया है | 1) जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को ढकने का , आवृत करने का काम करता है, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं / 2) जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण को रोकने का काम करता है, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं / 3) जो कर्म आत्मा को इन्द्रिय जन्य सुख-दुःख प्रदान करता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। 4) जो कर्म आत्मा में मोह पैदा करता है और-स्व पर के विवेक को नुकसान पहुंचाता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं | (कर्मग्रंथ (भाग-1)) 070 New