________________ है, फिर भी प्रयत्न द्वारा उस सोने में रहे मिट्टी के संयोग को दूर किया जा सकता है, बस, इसी प्रकार आत्मा और कर्म का संयोग अनादिकालीन होने पर भी संवर की साधना द्वारा आत्मा में नवीन कर्मों के आगमन को रोका जा सकता है और निर्जरा द्वारा आत्मा में रहे कर्मों को जलाकर भस्मीभूत किया जा सकता है / इस प्रकार आत्मा और कर्म का संयोग अनादि होने पर भी पुरुषार्थ द्वारा उस संयोग को दूर कर आत्मा अपने पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकती है। पयइ ठिइ-रस-पएसा, तं चउहा मोअगस्स दिटुंता / मूल पगइट्ट उत्तर-पगइ अठवन्न-सय-भेयं / / 2 / / शब्दार्थ पयइ-प्रकृति, ठिइ-स्थिति, रस-रस पएसा प्रदेश, तं-वह, चउहा=चार प्रकार, मोअगस्स-लड्डू, दिटुंता-दृष्टांत से, मूल पगइट्ट-मूल प्रकृति से आठ, उत्तर पगइ-उत्तर प्रकृति, अठवन्नसय= एकसौ अट्ठावन, भेयं भेद ! सामान्य अर्थ लड्डू के दृष्टांत से वह कर्मबंध प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश की अपेक्षा से चार प्रकार का है / कर्म की मूल प्रकृति आठ और उत्तर प्रकृति एकसौ अट्ठावन है। विवेचन : मिथ्यात्व आदि हेतुओं के द्वारा जब आत्मा कर्म का बंध करती है तो उस बंध के साथ ही चार वस्तुओं का भी निर्णय हो जाता है, जिन्हें क्रमशः प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध और प्रदेश बंध कहते हैं / लड्डू के दृष्टांत से प्रकृतिबंध आदि के स्वरूप को स्पष्ट किया जाता है / जैसे वायुनाशक पदार्थों से बने लड्डू का स्वभाव वायु को नाश करने का है, पित्त नाशक पदार्थों से बने लड्ड का स्वभाव पित्त को नाश करने का है और कफ नाशक पदार्थों से बने लड्ड का स्वभाव कफ को नाश करने का है, उसी प्रकार आत्मा जब कर्म का बंध करती है, तब कुछ कर्म पुद्गलों में आत्मा Al कर्मग्रंथ (भाग-1) 168