________________ के ज्ञान गुण को रोकने का स्वभाव होता है, कुछ कर्म में आत्मा को सुख-दुःख देने का स्वभाव होता है / कर्म के उस-उस स्वभाव के अनुसार उस-उस कर्म का वह नाम रखा जाता है जैसे-जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को रोकता है, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं, जो कर्म आत्मा को सुख-दुःख देता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं / ज्ञानावरणीय आदि कर्म की प्रकृतियाँ कहलाती हैं, अतः इसे प्रकृति बंध कहा जाता है। * कुछ लड्ड 15 दिन तक, तो कुछ लड्ड 1 मास तक अपने स्वभाव में रहते हैं, उसके बाद वे बिगड़ जाते हैं / इसे लड्डू की काल मर्यादा भी कहते हैं | इसी प्रकार जिस समय आत्मा नवीन कर्म का बंध करती है, उस बंध के साथ ही आत्मा के साथ उस कर्म के लगे रहने की कालमर्यादा भी निश्चित हो जाती है | __ जैसे अमुक कर्म आत्मा के साथ एक पल्योपम तक रहेगा...तो अमुक कर्म आत्मा के साथ एक सागरोपम तक रहेगा / कर्म के बंध समय जो कालमर्यादा निश्चित होती है, उसे स्थितिबंध कहा जाता है | * जैसे कुछ लड्ड में मधुर रस अधिक होता है तो कुछ में कम होता है / जैसे लड्ड के मधुर रस में न्यूनाधिकता देखने को मिलती है, उसी प्रकार कर्म के बंध समय रस में भी तरतमपना देखने को मिलता है / जो कर्म तीव्र रस पूर्वक किया जाता है, उस कर्म में रस भी तीव्र होता है और जो कर्म मंद रस से किया जाता है, उसमें रस भी मंद होता है / इस रस के अनुसार ही कर्म में फल देने की शक्ति घटती-बढ़ती है / कर्म पुद्गलों में फल देने के तरतम भाव को ही रस बंध कहा जाता है / जिस प्रकार कुछ लड्डु का प्रमाण 100 ग्राम का होता है तो कुछ लड्डू का प्रमाण 500 ग्राम होता है / उसी प्रकार कर्म बंध के समय कभी अधिक कर्म परमाणुओं का ग्रहण किया जाता है, तो कभी कम कर्म परमाणुओं का इस प्रमाण को ही प्रदेशबंध कहा जाता है | चार प्रकार के कर्मबंधों में प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का बंध योग से तथा स्थितिबंध और रसबंध का बंध कषाय से होता है / मूल प्रकृति : कर्मों के मुख्य भेदों को मूलप्रकृति कहा जाता है | कर्मग्रंथ (भाग-1)