________________ श्रुत कहलाता है / इस श्रुत से संस्कारित बना ज्ञान, श्रुत-मिश्रित कहलाता है अर्थात् पहले उपदेश आदि द्वारा जाना हो परंतु व्यवहार काल में श्रुत का उपयोग करने के समय में उपदेश आदि के उपयोग बिना होनेवाली मति, श्रुत निश्रित है। उदा. जिंदगी में पहली बार हाथी को देखने पर, बालक को समझाया कि 'इसे हाथी कहते हैं।' बालक ने उस हाथी को ध्यान से देखा / फिर काफी समय व्यतीत होने के बाद बालक ने पुनः उस हाथी को देखा और बोल उठा 'यह हाथी है / ' बालक का यह ज्ञान श्रुत की अपेक्षा पूर्व संस्कार के बिना कारण होने से इस ज्ञान को 'श्रुत निश्रित मति ज्ञान कहते हैं / ' 2. अश्रुत निश्रित मतिज्ञान : व्यवहार काल के पूर्व, श्रुतज्ञान द्वारा जिसकी बुद्धि संस्कारवाली नहीं बनी हो, 'ऐसे जीवों को मतिज्ञानावरणीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से स्वाभाविक जो बुद्धि उत्पन्न होती है, उसे अश्रुत निश्रित मतिज्ञान कहते हैं। इसके चार भेद हैं 1) औत्पत्तिकी बुद्धि : जिस बुद्धि से पहले नहीं जाने-सुने पदार्थ का तत्काल ज्ञान हो जाता है, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहते है / इस प्रकार की बुद्धि से प्रसंग उत्पन्न होते ही योग्य मार्ग मिल जाता है / 2. वैनयिकी बुद्धि : गुरुजनों का विनय, सेवा-भक्ति करने से प्राप्त बुद्धि को वैनयिकी बुद्धि कहते हैं / यह बुद्धि कार्य को वहन करने में समर्थ होती है और इहलोक परलोक में फल देनेवाली होती है। 3. कार्मिकी बुद्धि : उपयोग पूर्वक चिंतन मनन और अभ्यास करने से प्राप्त होने वाली बुद्धि को कार्मिकी बुद्धि कहते हैं। .. 4. पारिणामिकी बुद्धि : वय के परिपाक से वृद्ध मनुष्य को आगे-पीछे के अनुभव से जो ज्ञान होता है, उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं / यह बुद्धि अनुमान, हेतु व दृष्टांत से कार्य सिद्ध करनेवाली और लोकहित करनेवाली होती है / इस प्रकार श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के 336 भेद एवं अश्रुत निश्रित मतिज्ञान के चार भेद होने से मतिज्ञान के कुल 340 भेद हुए | __ अब आगे की दो गाथाओं में श्रुतज्ञान के 14 और 20 भेदों का कथन करते हैं। (कर्मग्रंथ (भाग-1)) 82