________________ ग. दृष्टिवादोपदेशिकी : विशिष्ट श्रुतज्ञान के क्षयोपशम वाले और हेयोपादेय की प्रवृत्तिवाले सम्यग्दृष्टि जीव की विचारणा को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा कहा जाता है। ___4. असंज्ञी श्रुत : जिन जीवों के मन नहीं होता है, उन्हें असंज्ञी कहा जाता है / असंज्ञी प्राणियों के श्रुत को असंज्ञी श्रुत कहा जाता है | 5. सम्यगश्रुत : सम्यग्दृष्टि जीवों के श्रुत को सम्यग्श्रुत कहा जाता है / _6. मिथ्याश्रुत : मिथ्यादृष्टि जीवों के श्रुत को मिथ्याश्रुत कहा जाता है / 7. सादि श्रुत : जिस श्रुतज्ञान का प्रारंभ होता है, उसे सादिश्रुत कहते हैं। ___8. अनादि श्रुत : जिस श्रुत की आदि न हो उसे अनादि श्रुत कहा जाता है। 9. सपर्यवसित श्रुत : जिस श्रुतज्ञान का अंत होता हो उसे सपर्यवसित श्रुत कहा जाता है। ___10. अपर्यवसित श्रुत : जिस श्रुतज्ञान का अंत न हो, उसे अपर्यवसितअनंत श्रुत कहा जाता है / पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा श्रुतज्ञान सादि, सपर्यवसित और द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादि अपर्यवसित है / ___11. गमिक श्रुत : जिस सूत्र में एक समान आलावें (पाठ) आते हो उसे गमिक श्रुत कहा जाता है / जैसे दृष्टिवाद / 12. अगमिक श्रुत : जिस सूत्र में एक समान आलावें नहीं आते हो, वह अगमिक श्रुत कहलाता है / जैसे-कालिक श्रुत / 13. अंग प्रविष्ट श्रुत : गणधर भगवंत विरचित द्वादशांग रूप श्रुत को अंगप्रविष्ट श्रुत कहा जाता है / 14. अंगबाह्य श्रुत : गणधरों से अतिरिक्त स्थविर मुनियों द्वारा अंगों के आधार से जो श्रुत रचा जाता है, उसे अंग बाह्य श्रुत कहा जाता है / जैसेदशवैकालिक, आवश्यक-नियुक्ति आदि / कर्मग्रंथ (भाग-1) 185