________________ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा 1) द्रव्य : जब कोई जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, तब उस जीव की अपेक्षा श्रुतज्ञान का प्रारंभ हआ कहलाता है, वो ही जीव सम्यग् दर्शन से भ्रष्ट होता है, तब उसके श्रुतज्ञान का अंत कहलाता है / इस प्रकार एक जीव की अपेक्षा श्रुतज्ञान सादि-सांत हुआ | अनेक जीवों की अपेक्षा श्रुतज्ञान अनादिकाल से चला आ रहा है और अनंतकाल तक रहेगा, अतः अनादि अनंत कहलाता है / 2) क्षेत्र : भरत और ऐरावत में तीर्थ का प्रारंभ होता है, अतः श्रुतज्ञान का भी प्रारंभ होता है और तीर्थ के उच्छेद के साथ श्रुतज्ञान का भी अंत आ जाता है, अत: भरत-ऐरावत में श्रुतज्ञान सादि-सांत हआ, जबकि महाविदेह में सदाकाल तीर्थ रहता है, अतः वहाँ की अपेक्षा सम्यग्श्रुत अनादि-अनंत है / 3) काल : भरत-ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के तीसरे आरे के अंत में श्रुतज्ञान का प्रारंभ होता है और उत्सर्पिणी के चौथे आरे का अमुक अंश व्यतीत होने पर तथा अवसर्पिणी के पाँचवें आरे के अंत में श्रुतज्ञान का नाश होता है, अतः यहाँ अमुक काल की अपेक्षा सादि-सांत है, जबकि महाविदेह क्षेत्र में सदा एक काल होने से वहाँ श्रुतज्ञान अनादि-अनंत है / 4) भाव : क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा श्रुतज्ञान सादि-सांत है / क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के प्रारंभ से श्रुतज्ञान का प्रारंभ होता है और वह सम्यक्त्व चला जाय, तब श्रुतज्ञान का अंत हो जाता है, अतः सादिसांत है / FECRETS मनुष्य को पुण्य के उदय से जो कुछ सुख के साधन मिले हैं, वे उसे कम ही लगते हैं और पाप के उदय से मान्यता जो कुछ दुःख आता है, वह उसे अधिक ही लगता है / पुण्य के उदय में उसे संतोष नहीं है और पाप के उदय में वह सहनशीलता से कोसों दूर है | कर्मग्रंथ (भाग-1)) 86E