________________ महावीर प्रभु दोनों प्रकार की लक्ष्मी से युक्त है / अनंतज्ञान , अनंतदर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य आदि आत्मा के स्वाभाविक गुण , आत्मा की अंतरंग लक्ष्मी कहलाते हैं / वीरप्रभु इस अंतरंग लक्ष्मी से युक्त है। अशोकवृक्ष, सुर पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, भामंडल, देव-दुंदुभि और तीन छत्र ये अष्ट महाप्रातिहार्य परमात्मा की बाह्य लक्ष्मी है / वीर शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है-'विशेषेण अनन्तज्ञानादिआत्मगुणान् ईरयति-प्रापयति वा वीरः' अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य आदि आत्मा के विशेष गुणों को जो प्राप्त करनेवाले हैं और दूसरों को भी ये आत्मिक गुण प्राप्त कराने वाले हैं, वे वीर कहलाते हैं | आत्मा के मूल स्वरूप में बाधक ऐसे राग-द्वेष को जड़-मूल से उखाड़ने वाले 'जिन' कहलाते हैं। प्रश्न : महावीर प्रभु को नमस्कार करने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर : ग्रंथकार महर्षि प्रस्तुत ग्रंथ में कर्म के विपाकों का वर्णन करना चाहते हैं, भगवान महावीर प्रभु ने अद्भुत पराक्रम द्वारा इन्हीं कर्मों का नाश किया था / इसके साथ ही महावीर प्रभु अंतिम तीर्थंकर होने से और वर्तमान में उन्हीं का शासन होने से आसन्न उपकारी के नाते उन्हें नमस्कार किया गया है। जिस व्यक्ति के पास जो शक्ति या पदार्थ होगा, उसे नमस्कार करने से हमें वह शक्ति प्राप्त होती है / महावीर प्रभु के पास अनन्तज्ञान आदि गुण संपत्ति है, अतः उन्हें नमस्कार करने से हमारी आत्मा में सत्तागत रही ज्ञानादि संपत्ति अवश्य प्रगट होगी / विषय निर्देश: 'कर्म विपाक' काजल की डिब्बी में जिस प्रकार काजल के कण ढूंस-ठूस कर भरे हुए होते हैं, उसी प्रकार चौदह राजलोक में सर्वत्र कार्मण-वर्गणा के पुद्गल ढूंस ढूंस कर भरे हुए हैं / हम जहाँ रहे हुए हैं, उसके चारों ओर भी कार्मण Siny (कर्मग्रंथ (भाग-1) 158