________________ पाप को पाप मानना-यह चौथे गुणस्थानक के जीवों की स्थिति है, जब कि पापों का आंशिक अथवा सर्वथा त्याग करना-पाँचवें व छठे गुणस्थानक की भूमिका है। विरति धर्म के स्वीकार के लिए मिथ्यात्व का त्याग अनिवार्य है / मिथ्यात्व के सदभाव में पापत्याग की प्रतिज्ञा का विशेष महत्त्व नहीं है / इसी कारण अभव्य आत्मा द्रव्य से पापों का त्याग कर दीक्षा भी अंगीकार कर ले तो भी मिथ्यात्व का सद्भाव होने के कारण उसके द्वारा किए गए त्याग का कोई विशेष महत्त्व नहीं है / 3. कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चारों कषाय भी कर्मबंध के मुख्य हेतु हैं / क्रोध व मान द्वेष स्वरूप हैं / माया और लोभ राग स्वरूप हैं | बँधे हुए कर्म में फल देने की जो तीव्रता पैदा होती है, उसका मुख्य कारण कषाय ही है / कर्मों की दीर्घ स्थिति का आधार भी कषाय ही है | * एक गर्भवती हिरनी के शिकार से श्रेणिक महाराजा नरक में चले गए और उन्हें वहाँ 84000 वर्ष तक नरक की भयंकर वेदनाएँ सहन करनी पड़ेंगी, इसके पीछे मुख्य कारण कषाय ही है / तीव्र भाव से जब कोई पाप कर्म किया जाता है, तब उस पाप में फल देने की शक्ति अत्यधिक बढ़ जाती * दृढ़प्रहारी ने स्त्री हत्या , गो हत्या आदि चार-चार हत्याएँ की थीं, परन्तु उन हत्याओं के बाद उसका हृदय काँप उठा था / उसका दिल पाप के तीव्र पश्चात्ताप से भर आया था / इसी के परिणामस्वरूप चार-चार हत्याएँ करने वाला दृढ़प्रहारी भी उसी भव से मोक्ष चला गया था / * नीम के पानी को ज्यों ज्यों उबाला जाएगा, त्यों त्यों उसकी कटुताकड़वाहट बढ़ती जाएगी, उसी प्रकार जो पाप, तीव्र भाव से किया जाता है, उस पाप की सजा अत्यधिक बढ़ जाती है | तीव्र भाव से किया गया अणु जितना पाप भी मेरु जितना हो जाता है और पश्चाताप के प्रभाव से मेरु जितना किया गया पाप भी अणु जितना हो जाता है। त्यागी, तपस्वी और संयमी आत्मा भी जब क्रोध आदि कषायों के कर्मग्रंथ (भाग-1) (63