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आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक
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१. जीव प्रत्यक्ष नहीं-यदि आत्मा (जीव) का अस्तित्व हो तो उसे घट• पट आदि के समान प्रत्यक्ष दिखाई देना चाहिए, किन्तु वह प्रत्यक्ष नहीं है । अप्रत्यक्ष पदार्थों का आकाश-कुसुम के समान सर्वथा अभाव होता है । जीव सर्वथा अप्रत्यक्ष होने से संसार में उसका भी सर्वथा अभाव है । यद्यपि परमाणु भी चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देता, किन्तु वह जीव के समान 'सर्वथा अप्रत्यक्ष नहीं है । कार्यरूप में परिणत परमाणु का प्रत्यक्ष तो होता ही है, लेकिन जीव का तो कथमपि प्रत्यक्ष नहीं होता । अतः परमाणु का अभाव नहीं माना जा सकता, जबकि जीव का सर्वथा अभाव मानना चाहिए।
२. अनुमान से भी जीव का अस्तित्व सिद्ध नहीं-अनुमान भी प्रत्यक्ष पूर्वक होता है । जिस पदार्थ का कभी प्रत्यक्ष न हुआ हो, उसको अनुमान से भी नहीं जाना जा सकता । प्रत्यक्ष से पहले निश्चित धूम तथा अग्नि का अविनाभाव सम्बन्ध दृष्ट होता है, उसी का स्मरण होता है । तभी धूमरूप हेतु के प्रत्यक्ष से अग्नि का अनुमान किया जाता है । यहाँ जीव के किसी भी लिंग (हतु) का लिंगी (साध्य) जीव के साथ सम्बन्ध पूर्वगृहीत नहीं है, जिससे उस हेतु का पुनः प्रत्यक्ष होने पर उस सम्बन्ध का स्मरण हो और जीव (आत्मा) के अस्तित्व के विष्य में अनुमान किया जा सके।
३. आगम-प्रमाण से जीव सिद्ध नहीं-आगम प्रमाण भी अनुमान रूप ही है, क्योंकि आगम के दो भेद हैं-दृष्टार्थ-विषयक और अदृष्टार्थ विषयक । दृष्टार्थ-विषयक आगम तो स्पष्टतः अनुमान है । 'घट' शब्द का श्रवण करते ही पहले प्रत्यक्ष देखकर अमुक विशिष्ट आकार वाले पदार्थ के निश्चय का पुनः स्मरण होता है, उससे अनुमान कर लिया जाता है कि वक्ता 'घट शब्द से अमुक आकार विशेष वाले पदार्थ का प्रतिपादन करता है । परन्तु हमने कभी सुना ही नहीं है कि जीव शरीर से भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होता है । तब फिर दृष्टार्थविषयक आगम से भी शरीर से भिन्न जीव की सिद्धि कैसे हो सकेगी ?
अदृष्टार्थविषयक आगम परोक्ष पदार्थों के प्रतिपादक वचनरूप होता है । यह भी अनुमानरूप है । जैसे-स्वर्ग-नरक आदि पदार्थ अदृष्ट (परोक्ष)
१ वही, (गणधरवाद) गा. १५५० पृ. ३ (अनुवाद) - २ वही, (गणधरवाद) गा. १५५१ पृ. ४ (अनुवाद) . ३ वही, (गणधरवाद) गा. १५५२ पृ. ४ (अनुवाद)
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