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आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक ५
कर्मों के मुख्य दो भेद हैं । एक घाती कर्म और दूसरा अघाती कर्म । घाती कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों को आच्छादित किये हुए है । बहिरंग में उनके उदय के फलस्वरूप शरीर, स्त्री, पुत्र, धन-वैभव आदि का संयोग जुड़ता है जो कि आत्मा से स्पष्ट रूप से भिन्न हैं, उनमें यह जीव इष्ट और अनिष्ट की कल्पना कर आकुल-व्याकुल होता है । वह राग-द्वेषादि भाव करता है जिसके कारण नये कर्मों का बन्ध करता है । यह बन्ध प्रतिसमय हो रहा है। क्योंकि जीव और पुद्गलों का परिणमन प्रति-समय है। अनादिकाल से प्रवाह रूप में कर्मों का बन्धन आत्मा के साथ हो रहा है। कर्म अमुक स्थिति लिये हुए रहते हैं और उनकी स्थिति के परिपाक पर स्वतः निर्जरित होते रहते हैं और नूतन कर्म बँधते रहते हैं जिससे जीव की संसार अवस्था बनी रहती है । इतना होने के बावजूद भी इन कर्मों का कपिन जीव के अपने अधिकार में है । यदि वह चाहे तो वह कर्मों का कर्ता बने, यदि वह न चाहे तो कर्मों का कर्ता न बने । यदि जीव अपने स्वरूप का, अपने वैभव का, अपनी परिपूर्णता का और अजर-अमरता का भान करता है तो वह कर्मों की श्रृंखला को छिन्न-भिन्न कर उनसे मुक्त हो सकता है । इन कर्मों के उदय में बाह्य संयोगों के निमित्त से वह आकुल-व्याकुल होता है । इसे ही सुख-दुःख का वेदन कहा जाता है । जिस सुखं की उसे अनुभूति होती है वह दुःख में भी परिवर्तित हो जाता है। वह सुख शाश्वत नहीं होने से केवल सुखाभास है । वह सुख अनन्त दुःख का कारण भी है । उस सुख को प्राप्त करने के लिए अनन्त इच्छाएँ जन्म लेती हैं । अतः उन इच्छाओं से मुक्त होने का और सच्चे सुख का उपाय एक मात्र सम्यग्ज्ञान है।
जो कर्म नहीं है पर कर्म के सदृश है उसे नोकर्म की संज्ञा प्रदान की गई है । नोकर्म भी दो प्रकार के हैं- बद्ध नोकर्म और अबद्ध नोकर्म । जैसे जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध है वैसे ही कर्म का फल जो शरीर है, उसका भी जीव के साथ एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध है । यह शरीर भी अमुक स्थिति लिए आत्मा के साथ बद्ध रहता है । इसलिए यह शरीर बद्ध नोकर्म है। इसी के माध्यम से जीव अन्तरंग कर्म के उदय में बाह्य स्त्री-पुत्र, धन-वैभव आदि में इष्ट और अनिष्ट मानकर राग-द्वेष करता है । स्त्री-पुत्र आदि चैतन्य परिग्रह है और धन-वैभव आदि अचैतन्य परिग्रह है। उस पर जीव अपना स्वामित्व मानता है और उन्हें भोगने के लिए रागादि भाव करता है। कभी अनुकूल मानकर राग करता है तो कभी प्रतिकूल मानकर द्वेष करता है । हम गहराई से चिन्तन करें तो यह चेतन परिग्रह या अचेतन परिग्रह न स्वयं सुखदायक है और न स्वयं दुःखदायक है । और न राग का निमित्त है और न द्वेष का निमित्त है । पर जीव अपने ही मोह व अज्ञान
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