Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसकी समीक्षा
भूल की उसीकी पुनरावृत्ति सोनगढ़ने की पता नहीं, इसकी परम्परा कब तक चलेगी। वस्तुतः यह सिद्धान्त विरुद्ध और खतरनाक है ।
पद्मप्रभमचारिदेवकी तरह स्वामीजीने जान-अनजानमें एकाङ्गी अध्यात्मके उपदेश एवं प्रचारको महान भूल की हैं। उसका परिमार्जन हो सकेगा, यह कठिन दिखाई देता है। किन्तु उसका परिमार्जन यथाशीघ्र आवश्यक एवं अनिवार्य है। इस परम्पराको रोकने अथवा उसपर गम्भीरतापूर्वक विचार करनेका प्रयत्न होना ही चाहिए ।
जयपुर (नया) में
निष्य में एक विद्वत्सगोष्टी अक्तूबर चली थी, संगोष्ठी में कई प्रश्नोंपर
१९६३ में आयोजित की गयी थी। यह संगोष्ठी लगभग ११ दिन तक विचार हुआ। सोनगड़पक्ष और इतरपक्ष के रूपमें यह संगोष्ठी आरम्भ हुई। सोनगढ़ के प्रमुख प्रतिनिधि पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री वागणसी और इतर पक्ष के प्रमुख प्रतिनिधि पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य थे । इस संगोष्ठी से आशा थी कि तत्त्वचर्चा वीतरागकथाके रूपमें होगी, जिससे तत्त्व निर्णय हो सके । किन्तु गोष्ठीका रूप विजिगीषुकथाके रूपमें परिणत हो गया, जैसाकि सोनगढ़ पक्षकी ओरसे प्रकाशित 'जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा के दो भागोंके अध्ययनसे अवगत होता है । अन्यथा तत्त्वचर्चाका प्रकाशन, सम्पादन और उसका धुंआवार प्रचार-प्रसार सोनगढ़पक्षकी ओरसे न होता ! दोनों पक्षों की ओरसे ही होता या किसी तटस्थ प्रकाशन संस्था से होता । इसके अतिरिक्त प्रश्नोंके उत्तर घुमा-फिराकर न देकर आगमानुसार दिये जाने चाहिए थे । यह सब विजिगीषुकथा में होता है, वीतरागकथामें नहीं । तत्व निर्णय के लिए की जाने वाली विशिष्ट विद्वानोंकी तत्त्वचर्चा हो वीतरागकथा है। जिस कथा में जय-पराजयकी भावना जागृत रहे और उसके लिए वैसे प्रयत्न भी किये जायें तो यह कथा (चर्चा) वीतरागकथा नही है, विजिगीषुकथा है और विजिगी कथा में तत्त्व-निय नहीं हो पाता ।
हमें खेद है कि जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाने समाजकी उत्सुकतापूर्ण तत्व जिज्ञासाको शान्त नहीं
किया।
अतएव सिद्धान्ताचार्य पण्डित वंशीधरजी सिद्धान्तशास्त्री व्याकरणाचार्य, दीना ( म०प्र०) ने उक्त तस्वचर्चा प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा करना आवश्यक हो नहीं, अनिवार्य भी समझा और उसीके फलस्वरूप उन्होंने प्रारम्भिक चार प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा इस प्रथम खण्ड में प्रस्तुत की है । व्याकरणाचार्यजी के चिन्तनकी यह विशेषता है कि वे हर विषयपर गम्भीरता से विचार करते हैं और जल्दबाजी में वे नहीं लिखते । फलतः उनके चिन्तनमें जहाँ गहराई रहती है वहाँ मौलिकता एवं समतुला भी दृष्टिगोचर होती है। यह सब भी जैनागम, जैन दर्शन और जैन न्याय शास्त्र के समवेत प्रकाश में उन्होंने किया है । इस दृष्टिसे उनका यह समीक्षा ग्रन्थ निश्चय ही तत्त्व निर्णयपरक एवं महत्वपूर्ण है ।
यद्यपि में पूज्य व्याकरणाचार्यजीका भ्रातृज हूँ और उनकी प्रतिभा एवं चिन्तन- दृष्टि के समक्ष नगप्प | किन्तु उनके आदेशको टाल न सका । उसे शिरोधार्य करके उनके इस ग्रन्थका सम्पादक बना । अन्तिम प्रूफ मैंने स्वयं देखा, फिर भी अशुद्धियां रह गयीं। इसके लिए में पाठकों तथा उनसे क्षमा याचना करता हूँ ।
१५-४-१९८२,
चमेली कुटीर, १/१२८, डुमरांव कॉलोनी, अस्सी,
वाराणसी - ५ ( उ० प्र० )
- दरबारीलाल कोठिया सेवानिवृत्त रीडर, जैन बौद्ध दर्शन का० हि० वि० वि०