Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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सम्पाद-मीद
यहाँ हम उसे स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते है । नियमसारकी वह गाथा और टीकाकार पमप्रभमलपारिदेवकी उसकी टीका निम्न प्रकार है
सम्मत्तस्य णिमिनं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा ।
अंतरहेऊ भणिदा दसणमोहस्स खयपहुदी ।।५३।। 'अस्य सम्यक्रमपरिणामस्य वाहासहकारिकारणं वीतरागसर्वज्ञमुखकमलविनिर्गतसमस्तवस्तुप्रसिपादनसमर्थ द्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानमिति । ये मुमुक्षवः तेप्युपचारतः पदार्थनिर्णयहेतुत्वात् अन्तरंगहेतव इत्युक्ताः दर्शनमोहनीयकमायप्रभृतेः सकाशात् इति ।'--टीका पृ० १०९, सोनगढ़-संस्करण।
गाथा और उसकी इस टीकाका हिन्दी अनुवाद श्री मगनलाल जैनने इस्त्र प्रकार किया है-'सम्यक्त्वका निमित्त, जिनसूत्र है। जिनसूत्रके जाननेवाले पुरुषोंको (सम्यक्त्वके) अन्तरंगहेतु कहे है । क्योंकि उनको दर्शनमोहके क्षयादिक है।' (गाथार्थ)। 'इस सम्यक्त्व परिणामका बाह्य सहकारी कारण वीतराग सर्वशके मुखकमलसे निकला हुआ समस्त वस्तुके प्रतिपादनमें समर्थ ऐसा द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है। जो मुमुक्षु हैं उन्हें भी उपचारसे पदार्थनिर्णयके हेतुपनेके कारण (सम्यक्त्व परिणाम) के अन्तरंग हेतु कहे है, क्योंकि उन्हें दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयादिक है।'
ऐसा ही प्रवचन स्वामीजीने भो गाथा ओर टीकाका किया है । उनका यह प्रवचन (सम्भवतः जून १९८१ के) आत्मधर्म में प्रकाशित किया गया है ।
क्रिन्तु उक्त गापाकी टीकाकार द्वारा की गयी टीका, उनका हिन्दी अनुवाद और प्रवचन न मूलकार भाचार्य कुन्दकुन्दके आशयानुसार हैं और न सिद्धान्तके अनुकूल है।।
यथार्थ में इस गाथामें आचार्य कुन्दकुन्दने सम्यग्दर्शनके बाह्य और अन्तरंग दो कारणोंका निर्देश किया है और कहा है कि सम्यग्दर्शनका बाह्य निमित्त जिनसूत्र और उसके ज्ञाता पुरुष है तथा अन्तरंग निमित्त दर्शनमोहनीयकर्मक क्षम, क्षयोपशम और उपशम है। यही सिद्धान्त भी है। आचार्य पूज्यपादने 'निर्देशस्वामित्वसाधन' आदि सूत्रको व्यापामें सम्यग्दर्शन के बाह्य और अम्पन्तर दो साधनोंको बतलाते हुए बाह्य साधन जिनबिम्बदर्शनादिको तथा अभ्यन्तर साधन दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयादिकको प्रतिपादित किया है । जिनगूत्रके ज्ञाता पुरुष जिनसूत्र की तरह एकदम पर (भिन्न) है वे अन्तरंग कारण कदापि नहीं हो सकते। उन्हें अन्तरंग कारण कहना ही गलत है। दर्शनमोहनीयकर्मझे क्षय, क्षयोपशम और उपशमको सम्यक्त्वका अन्तरंग कारण मानना संगत है, क्योंकि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिम उनका साक्षात् सम्बन्ध है।
कुन्दकुन्द भारतोके संकलयिता एवं सम्पादक पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यने भी नियमसारको उक्त गाथाका वही अर्थ किया है, जो हमने ऊपर प्रदर्शित किया है । उन्होंने लिखा है कि 'सभ्यक्त्वका बाह्य निमित्त जिनसूत्र-जिनागम और उसके ज्ञायक पुरुष हैं तथा अन्तरंग निमित्त दर्शनमोहनीमकर्मका क्षय आदि
गया है।' इसका भावार्थ भी उन्होंने दिया है। उसमें लिखा है कि 'निमित्त कारणके दो भेद है-एक बहिरंग निमित्त और दूसरा अन्तरंग निमित्त । सम्परत्वको उत्पत्तिका,बहिरंग निमित्त जिनागम और उसके ज्ञाता पुरुष है तथा अन्तरंग निमित्त दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यभिश्याव तथा सम्यक्त्व प्रकृति एवं अनन्तानुबन्धी क्रोष, मान, माया, लोभ इन प्रकृतियोंका उपशम, क्षय और क्षयोपशमका होना है । बहिरंग निमित्तके मिलनेपर कार्यकी सिद्धि होती भी है और नहीं भी होती । परन्तु अन्तरंग निमित्तके मिलनेपर कार्यको सिद्धि नियमरो होती है।'
इस कथनसे इतना ही अभिप्रेत है कि पद्मप्रभमलधारिदेवने उल्लिखित गाथाके अर्थमें जो महान्