Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
द्वाददर्शन में परस्पर सापेक्ष ही निश्चय और व्यवहार दोनोंको मान्य किया गया है— किसी एककी भी उपेक्षा उसमें नहीं हैं। इसी तथ्यको व्यक्त करनेवाली निम्न गाथा है, जो पूर्वाचार्योक्त प्राचीनतम है और जिसे आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा १२ की व्याख्यामें उद्धृत किया हूं
जद जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार- पिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिन ति अष्ण उण तच्वं ॥
'जिनकी यदि प्रवृत्ति चाहते हो तो व्यवहार और निश्चयको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारको छोड़ देने पर तीर्थका और निश्चयको त्याग देतेपर तत्त्व-वस्तुस्वरूपका उच्छेद हो जायगा ।
आचार्य अमृतचन्द्र इतना ही नहीं कहा, किन्तु इसी गाया के कलश ४ में समग्र जिनवचनको उभय नयके विरोधको दूर करने वाले 'स्यात्' पदसे युक्त भो कहा है और तभी उन वचनोंसे कल्याण बतलाया हूँ । यही जिनशासन है |
पर इधर ३०-४० वर्षोंसे सोनगढ़ये व्यवहारोपदेशनिरपेक्ष निश्चयनयकी विचारधारा प्रवाहित हुई है। इस विचार धाराका प्रभाव कुछ विद्वानों और अनेक जन-सामान्य पर पड़ा है और वे जिन-वाणीकी अनेकान्तपद्धतिका त्याग करने लगे हैं। भले ही उनके जीवन में वह सुखद अध्यात्म न भी आया हो, किन्तु व्यवहारका पलायन अवश्य ही हुआ। इसके अनेक उदाहरण हैं । कविवर पं० बनारसीदास आरम्भ में बड़े अम्माश थे । एक उपन्यास भी लिखा। किन्तु बादको जब ये सम्हले और आगराके अध्यात्मियोंके सम्पर्क में आये तो अध्यात्मी बन गये तथा व्यवहारको छोड़ दिया। जब उन्हें अपना वह अध्यात्म भी एकान्त मालूम
पड़ा, क्योंकि उसमें व्यवहार न या, तब उन्होंने जीवनशुद्धि स्वीकार कर ली। फलतः उन्होंने जैनी नीतिको, जो सहजगभ्य उसीका प्रचार-प्रसार किया ।
हेतु दोनों नयोंको अपनाकर स्याद्वाद-पद्धति नहीं है, समझा और अपनी रचनाओं द्वारा
इसमें सन्देह नहीं कि जिस अध्यात्मके इने-गिने ज्ञाता थे, श्रीकानजी स्वामीने उसके अनेकों ज्ञाता पैदा कर दिये और अनेकोंकी सर्वथा व्यवहारपरक रुचि एवं प्रवृत्तिको अध्यात्मकी मोर मोड़ दिया। इसके लिए समाजको श्रीकानजी स्वामीका आभार मानना चाहिए।
किन्तु उसे सबसे बड़ी भूल यह हुई कि उन्होंने अध्यात्मका एकाङ्गी उपदेश दिया व प्रचार किया । व्यवहारका कथन भी उसके साथ होना आवश्यक था। बिना तप, त्याग और साधना के सही अर्थ में अध्यात्मकी उपलब्धि नहीं हो सकती । यही कारण है कि वे मृत्युके अन्तमें वेदनाको नहीं सह सके । सुकमाल, सुकीशल आदि सैकड़ों उदाहरण हैं, जिन्हें वेश्नाने विचलित नहीं किया। समयसारी होता बुरा नहीं है, बहुत अच्छा है । मुमुक्षुका लक्ष्य तो नहीं है । किन्तु व्यवहार में उसे उतारना चाहिए। उनकी भूलका परिणाम यहू हुआ कि जिसे देखो उसीके हाथमे समयसार है और उसीका वह प्रवचन करता है। भले ही वह द्रव्यसंग्रह मी न पढ़ा हो, गोम्मटसार, त्रिलोकसार, मूलाचार आदि सिद्धान्तग्रन्थोंकी बात तो दूर है 1
ऐसी स्थिति में उसके विरुद्ध आवाज उठना स्वाभाविक है। बनारसीदासने भूल की। उसका परिमार्जन भी स्वयं कर लिया | नियमसार टीका के कर्ता पद्मप्रभमलधारिने उसकी ५३ वीं गाथाका अर्थ करने मे भूल की। किन्तु ने उसका परिमार्जन नहीं कर सके । उनको भूलको श्रीकानजी स्वामी भी नहीं जान पाये और टीकाके अनुसार उन्होंने प्रवचन प्रस्तुत किये | सोनगढ़ से प्रकाशित नियमसारको टीकाका हिन्दी अनुवाद भी अनुवादकने वैसा ही भूलभश किया। सोनगढ़ और अब जयपुरसे प्रकाशित आत्मधर्म में दिये स्वामीजी के उन मूळ गाथा और टीका दोनों पर किये प्रवचनको भी उसी भूलके साथ प्रकट किया है । सम्पादक डॉ० हुकमचन्द्र भारिल्लने भी उसका संशोधन नहीं किया ।