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ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
है कि शान, कलंद, कर्णिकार आदि छ: दिशाचर जो अष्टांग निमित्त के ज्ञाता थे, उन्होंने गोशालक का शिष्यत्व स्वीकार किया। चूर्णिकार के मतानुसार वे दिशाचर भ० पार्श्वनाथ संतानीय थे।
बौद्ध साहित्य में भ० महावीर स्वामी और उनके शिष्यों को चातुर्याम युक्त लिखा है। संयुक्तनिकाय में निक नामक एक व्यक्ति ज्ञातपुत्र महावीर को चातुर्याम युक्त कहता है। जैन साहित्य से यह पूर्ण सिद्ध है कि भगवान् महावीर की परंपरा पंचमहाव्रतात्मक रही है तथापि बौद्ध साहित्य में उसे चातुर्याम युक्त कहा गया है। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि बौद्ध भिक्षु पार्श्वनाथ की परंपरा से परिचित व सम्बन्धित थे इसी कारण भ० महावीर स्वामी के धर्म को भी उन्होंने उसी रूप में देखा है। यह पूर्ण सत्य है कि भ० महावीर स्वामी से पूर्व निर्ग्रथो संप्रदाय में चार याम का ही महात्म्य था और इसी कारण से वह अन्य संप्रदाय से विश्रुत रहा होगा। संभव है बुद्ध और उनकी परंपरा के विज्ञों को श्रमण भगवान महावीर ने निग्रंथ संप्रदाय में जो आंतरिक परिवर्तन किया, उसका पता नहीं लगा।
धम्मपद की अट्ठ कथा में निर्ग्रथों को वस्त्रधारी कहा गया है जो संभवतः भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा से सम्बन्धित थे। उसी सत्त की अट्ठ कथा में यह भी निर्देश है कि बुद्ध का चाचा बप्प निर्ग्रथा परम्परा का उपासक था, हालांकि जैन परंपरा में इस संबंध में कोई उल्लेख नहीं है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि बुद्ध के पितृव्य का निग्रंथ धर्म में होना भगवान् पार्श्वनाथ और उनके निग्रंथ धर्म की व्यापकता का स्पष्ट परिचायक है। ३.२ तथागत बुद्ध की साधना पर भगवान पार्श्व का प्रभाव :
एक बार बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे। उन्होंने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा-"भिक्षुओ! मैं प्रव्रजित होकर वैशाली गया, जहाँ अपने तीन सौ शिष्यों के साथ आराड कालम रहते थे। मैं उनके सन्निकट गया। वे अपने जिन श्रावकों को कहते त्याग करो! त्याग करो! जिन श्रावक उत्तर में कहते, "हम त्याग करते हैं, हम त्याग करते हैं।" "मैंने आराड कालम से कहा-मैं भी आपका शिष्य बनना चाहता हूं। उन्होंने कहा-जैसा तुम चाहते हो वैसा करो। मैं शिष्य रूप में वहाँ पर रहने लगा, जो उन्होंने सिखाया मैंने वह सब सीखा। वे मेरी प्रखर बुद्धि से प्रभावित हुए। उन्होंने कहा-जो मैं जानता हूं वही यह गौतम जानता है। अच्छा हो गौतम! हम दोनों मिल कर संघ का संचालन करें। इस प्रकार उन्होंने मेरा सम्मान किर मुझे अनुभव हुआ, इतना-सा ज्ञान पाप नाश के लिए पर्याप्त नहीं, मुझे और गवेषणा करनी चाहिए।" यह विचार कर मैं राजगृही आया। वहाँ पर अपने सात सौ शिष्यों के परिवार सहित उद्रक रामपुत्र रहते थे। वे भी अपने जिन श्रावकों को वैसा ही कहते थे। मैं उनका भी शिष्य बना, उनसे भी मैंने बहुत कुछ सीखा, उन्होंने भी मुझे सम्मानित पद दिया, किन्तु मुझे यह अनुभव हुआ कि इतना ज्ञान भी पाप क्षय के लिये पर्याप्त नहीं, मुझे और भी खोज करनी चाहिए यह सोच कर मैं वहाँ से भी चल पड़ा।"
प्रस्तुत प्रसंग में जिन श्रावक शब्द का प्रयोग हुआ है वह यह सूचित करता है कि 'आराड कालम, उद्रक रामपुत्र और उनके अनुयायी निग्रंथ धर्मी थे। यह प्रकरण 'महावस्तु' ग्रंथ का है, जो महायान संप्रदाय का प्रमुखतम ग्रंथ रहा है। महायान के त्रिपिटक संस्कृत भाषा में हैं। पालि त्रिपिटकों में जिस उद्देश्य से निग्गण्ठ शब्द का प्रयोग हुआ है, उसी अर्थ में यहाँ पर "जिन श्रावक" शब्द का प्रयोग किया गया है। उससे यह स्पष्ट है कि बुद्ध ने जिन श्रावकों के साथ रहकर बहुत कुछ सीखा । इससे यह भी सिद्ध होता है कि तथागत के पूर्व भी निग्रंथ धर्म था। भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा से बुद्ध का संबंध अवश्य रहा है, वे अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से कहते हैं - सारिपुत्र! "बोधि प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी मूंछों का लुंचन करता था, मैं खड़ा रह कर तपस्या करता था। उकडू बैठकर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था, लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था। बैठे हुए स्थान पर आकर दिये हुए अन्न को, और निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था।" यह समस्त आचार जैन श्रमणों का है। इस आचार में कुछ स्थविर कल्पिक है, और कुछ जिन कल्पिक है। दोनों ही प्रकार के आचारों का उनके जीवन में संमिश्रण है। संभव है प्रारम्भ में गौतम बुद्ध भ० पार्श्वनाथ की परंपरा से संबंधित रहे हों।
जैन साहित्य से यह भी सिद्ध होता है कि अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर धर्म के प्रवर्तक नहीं, अपितु सुधारक थे। उनके पूर्व प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में तेईस तीर्थंकर हो चुके हैं, किन्तु बाईस तीर्थंकरों के संबंध में कुछ ऐसी बातें हैं जो आधुनिक विचारकों के मस्तिष्क में नहीं बैठती, लेकिन भगवान पार्श्व के संबंध में ऐसी कोई बात नहीं है जो आधुनिक विचारकों की दष्टि
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