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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
३.६.६ श्रीमती पद्मा जी :- पोतनपुर के निवासी समरसिंह की पत्नी का नाम पद्मा था, इनके पुत्र का नाम भद्रयश था जो आठवें गणधर हुए।
३.६.७ ततीय, नव दसवें गणधर की माताओं के धर्म संस्कारों के प्रभाव से उनके पुत्र भी भ० पार्श्वनाथ के संघ के गणधर बने।
३.६.८ श्रीमती देवानंदा जी :- ब्राह्मणकुण्डग्राम में चार वेदों का ज्ञाता, धनाढ्य प्रसिद्ध, एवं तेजस्वी ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण की सुकोमल, सुंदर, गुणवान् देवानंदा नामक पत्नी थी। भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा के मुनियों के सम्पर्क से दोनों श्रमणोपासक धर्म के धारक बन गये। देवानंदा जीव-अजीव, पुण्य-पाप आदि नौ तत्वों की जानकार सुश्राविका थी। एक बार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ब्राह्मणकुण्डग्राम में पधारे यह समाचार सुनकर देवानंदा प्रसन्न होकर प्रभु के समवसरण में गई। प्रभु महावीर को देखकर उसके नेत्र हर्षाश्रुओं से भीग गए स्तनों में से दुग्ध की धारा निकल आई। निष्पलक दृष्टि से वह भगवान् को निहारने लगी। उसकी इस अवस्था को देखकर गौतम ने कारण पूछा। प्रभु ने बताया, देवानंदा ब्राह्मणी मेरी माता हैं मैं इसका पुत्र हूं १६ साढ़े बियासी रात्रि तक भ० महावीर स्वामी देवानंदा की कुक्षी में रहे। देवानंदा ने प्रभु के उपदेश को सुनकर दीक्षा अंगीकार की सिद्ध बुद्ध और मुक्त हुई ।२१
३.६.६ श्रीमती त्रिशला देवी :- लिच्छविशिरोमणि महाराज चेटक की पुत्री थी। ज्ञातकवंश की प्रसिद्धि के परिणामस्वरूप चेटक ने अपनी पुत्री का विवाह राजा सिद्धार्थ के साथ कर दिया ।२ रानी त्रिशला जी का अपरनाम प्रियकारिणी व विदेहदत्ता भी था। पति-पत्नि दोनों ही धीर वीर, सुशिक्षित, प्रबुद्ध, धार्मिक तथा उदार प्रवृत्ति के थे वे कुलपरंपरा के अनुसार जैनधर्म के अनुयायी तथा भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा के उपासक थे। त्रिशला रानी ने तीर्थंकर के योग्य चौदह स्वप्नों को देखा तथा वर्धमान भगवान महावीर स्वामी की जननी बनने का सौभाग्य प्राप्त किया। बहुपत्नीवादी सामंतयुग के राजन्य वर्ग के सम्भ्रांत सदस्य होते हुए भी भगवान् महावीर के पिता तथा पितामह सिद्धार्थ और सर्वार्थ एक पत्नीव्रत के पालक थे। उनके दो पुत्र और एक सुपुत्री थी। वह नन्दी वर्धन को राज्य का भार सौंप दिया और अंत में अनशनपूर्वक समाधीमरण को प्राप्त करके राजा व रानी दोनों अच्युत नामक बारहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ की देवायु पूर्ण कर के महाविदेह क्षेत्र में संयम अंगीकार के कर मोक्ष प्राप्त करेंगे।२५
३.६.१० श्रीमती देवी :- वर्धमान महावीर का जन्म स्थान कुण्डलपुर पूर्वी भारत के विदेह देश के अन्तर्गत महानगरी वैशाली से नातिदूर स्थित था। शक्तिशाली वज्जिगण संघ की वह राजधानी थी। उक्त गणसंघ में लिच्छवि, ज्ञात विदेह, मल्ल आदि अनेक स्वाधीनताप्रेमी गण सम्मिलित थे। इन्हीं गणों में से ज्ञातकवंशी व्रात्य क्षत्रियों का एक गण था, जिसका केंद्र कण्डग्राम था। कुण्डग्राम के स्वामी और गण के मुखिया राजा सर्वार्थ थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती देवी था। यह दम्पत्ति श्रमणों के उपासक तीर्थंकर प्रभु पार्श्वनाथ की परंपरा के अनुयायी थे। वे अपने अर्हत चैत्यों में अर्हतों की उपासना किया करते थे तथा शील, सदाचार संपन्न थे। इनके पुत्र का नाम सिद्धार्थ था जो भ० महावीर स्वामी के पिता और कुण्डलपुर के राजा थे।
३.६.११ रानी सूर्यकांता : अर्ध केकयदेश श्वेताम्बिका नगरी के राजा प्रदेशी थे, उनकी रानी का नाम सूर्यकांता था। राजा का युवराज 'सूर्यकांतकुमार था। युवराज राज्य कार्य संभालता था। राजा प्रदेशी को रानी सूर्यकांता अत्यंत प्रिय थी। चित्त सारथी ने राजा प्रदेशी की केशी कुमार श्रमण से भेंट करवाई। नास्तिक प्रदेशी ने अनेक तर्क-वितर्क किये तथा अंत में वह परम धार्मिक बन गया। अधिकतर समय वे धर्म ध्यान में व्यतीत करने लगे। सूर्यकांता रानी ने देखा प्रदेशी राजा न राज्य कार्य में रूचि लेते हैं, न ही भोग भोगते हैं, अब इनसे मुझे क्या प्रयोजन? एक दिन स्वयं राजमाता बनने के चक्कर में उसने पूर्व के अनुरुप राजा प्रदेशी को भोजन एवं पानी में विष मिलाकर दे दिया। राजा ने समझ लिया कि रानी ने मुझे मारने के लिए विष दिया है, परन्तु धार्मिक राजा शांतिपूर्वक, संथारा करके धर्म ध्यान में लीन हो गया, वह काल धर्म प्राप्त कर सूर्याभ देव बना । भगवान् महावीर को वंदना नमस्कार करने अपने परिवार के साथ आया था।
३.६.१२ धारिणी : आम्रकल्पा नगरी के राजा सेय की रानी का नाम धारिणी था। धारिणी रानी प्रियदर्शना और सुरूपवती थी। भगवान महावीर स्वामी आम्रकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन में पधारे। तब सेय राजा एवं रानी धारिणी ने प्रभु के दर्शन किये तथा उपासना की। राजा रानी धर्मपरायण थे तथा रानी धारिणी पतिपरायणा सन्नारी थी।
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