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सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
सागरगच्छ के श्री शान्तिसागर सूरि जी ने करवाई। संवत् १९३२ में अजीमगंज निवासी श्रीमती महताब कुँअर बाई ने पावापुरी में अपनी देख रेख में महावीर स्वामी का मंदिर बनवाया। जैसलमेर की जैन श्राविकाओं का योगदान :
जैसलमेर स्थित तपपट्टिकाकी प्रशस्ति में एवं आर. वी. सोमानी द्वारा लिखित पुस्तक जैना इंस्क्रिप्शंस ऑफ राजस्थान में निम्न उल्लेख प्राप्त होता है कि जैसमेर के चोपड़ा परिवार में श्राविका श्रीमती पंछु बाई की पुत्री श्रीमती गेली हुई थी। उसका विवाह शंखवाल गोत्रीय अशराज से हुआ था। श्रीमती गेली ने आबू एवं गिरनार आदि की संघयात्राएँ निकाली थी। वि. संवत् १५०५ में उसने एक तप-पट्टिका जैसलमेर में बनवाई थी। श्री मेरू सुंदरसूरि ने उसे लिखी थी। इस तपपट्टिका का विशाल शिलालेख ऊपर एक कोने की तरफ से कुछ टूटा हुआ है। इसकी लम्बाई २ फुट १० इंच और चौड़ाई १ फुट १० इंच है। इसमें बाईं ओर प्रथम २४ तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान इन चार कल्याणकों की तिथियाँ कार्तिक वदी से अश्विन सुदी तक महीने के हिसाब से खुदी हुई हैं। तत्पश्चात् महीने के क्रम से तीर्थंकरों के मोक्ष कल्याणक की तिथियाँ भी दी गई हैं। दाहिनी तरफ प्रथम छ: तपों के कोठे बने हुए हैं तथा इनके नियमादि खुदे हुए हैं। इसके नीचे वज्र मध्य और यव मध्य तपों के नकशे हैं। एक तरफ श्री महावीर तप का कोठा भी खुदा है। इन सबके नीचे दो अंशों में लेख है। प्रस्तुत तप पट्टिका जैसलमेर स्थित श्री संभवनाथ जी के मंदिर की है। १०.अ ६.६ श्रीमती काकलदेवी - ई. १५३०.
वह काकल नरेश वीर भैररस वोडेयर की छोटी बहन थी जो बगुंजि सीमा की रक्षिका एवं शासिका थी । उसने ई. सन्. १५३० में अपने कुलदेवता कल्लबसदि के पार्श्व तीर्थकर की नित्य पूजा के लिए भूमिदान किया था । अपनी पुत्री कुमारी रामादेवी की पुण्य स्मति में उसने भूमि, चावल, तेल, धातु आदि के विविध द्रव्य दान दिये थे । काललदेवी की माता श्रीमती बोम्मल देवी थी व पिता बोम्मरस थे। भाई वीर भैररस था, उसकी रानी भैरवाम्बा सालुव वंश की राजकुमारी थी और बड़ी जिनभक्त धर्मात्मा थी।१०.व ६.७ महारानी रम्भा - १६ वीं शती.
मैसूर नेरश कष्णराज के पुत्र एवं उत्तराधिकारी महाराज चामराज की रानी थी । वह परम विदुषी, इतिहास की रसिक, विद्वानों की प्रश्रयदाता व जैनधर्म की पोषक थी। पण्डित श्री देवचंद्रजी ने अपना प्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ "राजावलिकथा" इसी महारानी को ईस्वी सन् १८४१ में समर्पित किया था। ६.५ श्रीमती वीरादेवीजी - सन संवत् अनुपलब्ध.
श्रीमती वीरादेवी दक्षिण भारत की वीर नारी थी। वह बाल ब्रह्मचारिणी तथा, कुशल नारी रत्ना थी। श्रीमती वीरादेवी ने अपने पिता, नाना तथा अपनी छ: मौसियों के राज्यों के एक बड़े प्रदेश पर गोसय्या तथा वाटुल्ला को राजधानी बनाकर न्याय तथा वीरता के साथ निष्कंटक राज्य किया। अपने राज्य के पड़ोसी वैष्णव राजा के सेनापति वेंकटप्पा के साथ कुशलतापूर्वक युद्ध किया था। युद्ध का संचालन स्वयं वीरादेवी ने किया था और वेंकटप्प को युद्ध क्षेत्र से मार भगाया था। ६.६ श्रीमती विमलाबाई - ई. सन् की १६ वीं शती.
मेवाड़ में श्रीमान् प्रभुदत्त की धर्मपत्नी थी श्रीमती विमलाबाई। विमलाबाई जैन श्रमणोपासिका थी। अपने पुत्र घासीलाल को धर्म संस्कारों से सिंचित कर उसे बाल्यावस्था में ही छोड़ कर स्वर्ग सिधार गई। आगे चलकर श्रुत सेवी आचार्य घासीलालजी के रूप में वे सुविख्यात हुए तथा ३२ आगमों पर आपने संस्कत टीका लिखने का उल्लेखनीय कार्य किया। १३ ६.१० श्रीमती उमरावबाई - ई. सन् की २० वीं शती.
राजस्थान के बूंदी जिले के अंतर्गत "गंभीरा" ग्राम में खण्डेलवाल जाति एवं छाबड़ा गोत्रीय श्रीमान् वख्तावरमलजी की धर्मपत्नी थी श्रीमती उमरावबाई । उनके एक पुत्र का नाम चिरंजीलाल रखा गया था । यही पुत्र आगे चलकर आचार्य धर्मसागरजी
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