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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
का प्रतिपादन कर भारतीय दर्शन को समृद्ध किया। सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति का प्रचलन कर एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया जो आज भी जनता के लिए प्रेरणादायी है।
३.४.३ सांस्कृतिक देन (साहित्य) : भगवान् महावीर स्वामी के उपदेश समस्त भारत में प्रसारित हुए। जैन विद्वानों ने भारत की अनेक भाषाओं जैसे प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी, मराठी, कन्नड़, तमिल तथा तेलुगु आदि में अनेक ग्रंथों की रचना की। ये ग्रंथ व्याकरण, काव्य, कोश, छंदशास्त्र, योगशास्त्र, कथाकाव्यों तथा चरित काव्यों आदि विभिन्न विषयों से संबंधित थे। जैन ग्रंथों में ११ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्ण, ४ छेद सूत्र तथा चार मूलसूत्र आदि को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इन ग्रंथों द्वारा भारतीय साहित्य का विकास हुआ तथा भारत की भाषाओं को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। इन साहित्यिक ग्रंथों से धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है।
३.४.४ राजनीतिक देन : अहिंसा के सिद्धांत के परिणामस्वरूप कई राजा शांतिप्रिय बन गए तथा उन्होंने निरर्थक युद्धों में भाग लेना बंद कर दिया।
३.४.५ भाषा विकास सम्बन्धी देन : भगवान महावीर ने अपने उपदेश जन साधारण में प्रचलित अर्द्ध मागधी भाषा में किये जिसके कारण लोग इस धर्म के प्रति आकृष्ट हुए। ३.५ तीर्थंकर भ० महावीर स्वामी के काल में नारी चेतना :
बिहार संस्कृति का जन्मदाता है। वहाँ का प्रत्येक रजकण महावीर के चरणचिन्हों से अंकित है। वहाँ की गुफायें उनके संदेश से प्रतिध्वनित हो रही हैं। वहाँ के पहाड, नदी, नाले और खण्डहर उन्हें याद करते है। राजगृही, पाटलीपुत्र, नालंदा, वैशाली, अपापा, चम्पा तथा दूसरे श्रमण-संस्कृति के केंद्र आज भी अपनी पुरानी गाथा सुना रहे हैं। मगध का सांस्कतिक महत्व भारत के इतिहास में कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण माना गया है। १० आज से २६०० वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने भगवान् ऋषभदेव की क्रमागत परंपरा के अनुसार नारी-जागरण और नारी-स्वतंत्रता की जो ज्योति जगाई थी उसी का यह प्रस्फुटन है कि नारी चेतना और नारी विकास में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। कल तक घर की चार दीवारी में बंद रहनेवाली नारियां आज पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर कार्य कर रही हैं।
जैन संस्कृति में नारियों को निरन्तर ही गरिमापूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। उनकी स्वतंत्रता मात्र सैद्धान्तिक न होकर व्यावहारिक भी रही है। यदि प्राचीन जैन-साहित्य पर दृष्टि डाली जाये, तो आद्य-तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों के साथ-साथ अपनी पुत्रियों- ब्राह्मी व सुंदरी को भी समान रूप से शिक्षा प्रदान की थी। जिसके आधार पर उन्होंने ज्ञान-विज्ञान और कला के क्षेत्र में प्रगति कर अपनी प्रतिभा से सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। राजकुमारी ब्राहमी के नाम पर ही विश्वप्रसिद्ध प्राचीन-लिपि का नामकरण भी ब्राहमी लिपि किया गया, जिसमें सम्राट अशोक, कलिंगाधिपति जैन सम्राट् खारवेल तथा परवर्ती अनेक शासकों के धर्मलेख उपलब्ध हैं। पूर्वकाल में सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी पुत्र और पुत्री में कोई भेदभाव नहीं था, किंतु काल के दुष्प्रभाव से भगवान् महावीर का युग आते-आते पुरूषों की मनोदशा में बहुत परिवर्तन आ गया था। उनके काल में नारी की दशा अत्यंत शोचनीय हो गई थी। उसे एक तुच्छ दासी के समान समझा जाने लगा था। खुलेआम उसका क्रय विक्रय किया जाने लगा था। उसके अधिकारों की अवहेलना की जा रही थी। उसे शिक्षा से भी वंचित रखा जाता था। भगवान् महावीर स्वयं प्रकाशित थे। भ० महावीर ने समृद्ध राजवंश में जन्म लेकर भी बारह वर्षों तक केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए जो सतत् प्रयत्न किया उसका प्रभाव लोक जीवन पर ही नहीं, किंतु उनके अपने परिजनों पर भी पड़ा। उनकी दया, सहनशीलता, क्षमा, व त्याग का ही प्रभाव था कि उनकी मौसी धारिणी (पद्मावती) जैसी सन्नारी ने शील की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।
__ महासती चंदनबाला ने संघर्षों के पहाड़ों का आलिंगन किया किन्तु अपने शील धर्म को नहीं छोड़ा। वैशाली की राजकुमारी चंदनबाला, जो बेड़ी में जकडी हुई एक क्रीत दासी का जीवन व्यतीत कर रही थी, उसे भगवान महावीर ने दासता से ही मुक्त नहीं किया, अपितु उसे अपने चतुर्विध संघ में दीक्षित कर साध्वी संघ की प्रमुखा बनाया। इस प्रकार उन्होंने स्त्रियों को भी पुरूषों की भांति आध्यात्मिक उन्नति के संपूर्ण अधिकार प्रदान किये। जैसे - बारह व्रतों का पालन करना पूजा करना आराधना करना सामायिक करना तथा ग्यारह अंग सूत्रों का पठन-पाठन करना इत्यादि। इस आध्यात्मिक उत्कृष्टता के कारण भगवान् महावीर
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