________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
1
आगामी चौबीसी में वह निर्मम नामक पंद्रहवां तीर्थंकर होगी । ६ अम्बड़ सुलसा की दढ़ता देखकर विस्मित रह गया। अपने मूल रूप में प्रकट होकर वह बोला- "सुलसा! तुम कसौटी पर खरी उतरी हो । भगवान् महावीर ने तुम्हारी प्रशंसा में जो शब्द कहे थे तुमने उनको सत्य ज्ञापित कर दिया है। इससे मैं आज बहुत प्रसन्न हूँ।" सुलसा ने अंबड़ को पहचान लिया। उससे भगवान का सुख-संवाद पूछा। महावीर का भक्त होने के नाते उसे साधर्मिक भाई मानकर उसने उसका सम्मान किया। धर्म और धर्माचार्य के प्रति जिसकी आस्था निश्छल होती है, वही व्यक्ति सुलसा जैसी दढ़ता रख सकता है। अन्यथा जिज्ञासा और कुतूहलवश व्यक्ति कहीं भी चला जाता है। ऐसी श्राविकाएं भी सौभाग्यशालिनी होती है, जो अपने धर्मगुरुओं के मन में स्थान बना पाती हैं।
171
३.७.३५ नंदा जी : नंदा कौशाम्बी के अमात्य सुगुप्त की पत्नी थी । वह करुणाशील श्रमणोपासिका थी । प्रभु महावीर के प्रति उसकी अनन्य भक्ति एवं निष्ठा थी। महारानी मगावती के साथ उसका सखीवत् स्नेह था। एक बार प्रभु महावीर ने तेरह कठोर अभिग्रह धारण किये। कौशाम्बी नगरी में भिक्षा हेतु जाते किन्तु पुनः खाली लौट आते। प्रभु भिक्षार्थ नंदा के घर पधारे किंतु भिक्षा लिये बिना ही लौट गये। इस बात से नंदा अत्यंत व्याकुल हुई। उसने यह सम्पूर्ण घटना महारानी मगावती तक पहुंचाई। नारीद्वय ने अपने अपने पतियों से इस बारे में चर्चा की। अमात्य सुगुप्त ने समूचे नगर की भावना भगवान् के सामने प्रस्तुत की परन्तु प्रभु मौन रहे। उन्होंने समस्त कौशाम्बी वासियों को साधुओं के आहार- पानी लेने देने के नियमों की जानकारी करा दी, किंतु भगवान
अभिग्रह पूर्ण नहीं हुए। जीवन में आये हुए इन अमूल्य क्षणों के कारण दोनों नारियों की धर्म श्रद्धा एवं धर्म - भक्ति परिपुष्ट हुई, दोनों की प्रभु महावीर के प्रति अनन्य निष्ठा की चर्चा कौशाम्बी के घर घर में फैल गई। उपासिका नंदा की धर्म - भक्ति ने सारी नगरी को श्रमणों के दढ़ संयम के प्रति ध्यान आकर्षित कराया और धर्म भाव जगाया तथा सेवा से दुख को दूर करने का प्रयास भी किया । नन्दा जी नारी जीवन में रही हुई उस समय की धर्म जागरूकता की परिचायक है | ११०
३. ७.३६ प्रभावती जी प्रभावती वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी । भ० महावीर के परम भक्त उपासक सिंधु - सौवीर देश के शक्तिशाली एवं लोक प्रिय महाराजाधिराज उदायन की वह रानी थी। महाराजा उदायन की राजधानी "वीतभयपत्तन" थी। यह भारत के पश्चिमी तट की महत्वपूर्ण बन्दरगाह थी । महारानी प्रभावती एवं महाराजा उदायन अत्यंत निरभिमानी, विनयशील, साधुसेवी एवं धर्मानुरागी थे। भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित बारहव्रतधारी श्रमणोपासक थे। अभीचिकुमार नाम का इनका एक पुत्र था और केशीकुमार नामक अपने भानजे से भी वे पुत्रवत् स्नेह करते थे।
महारानी प्रभावती की उत्कट धर्मनिष्ठा से प्रभावित होकर महाराज ऐसे धर्मरसिक बन गये थे कि उन्होंने राजधानी में एक अत्यंत मनोरम जिनायतन का निर्माण कराकर उसमें स्वयं भगवान् महावीर की एक देहाकार सुवर्णमयी प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी । तथा यह भी किंवदन्ति प्रचलित है कि उन्होंने भगवान् के कुमारकाल की एक चन्दनकाष्ठ निर्मित प्रतिमा भी बनवाई थी, जिसे बाद में "जीवंतस्वामी" कहा जाने लगा। एक आक्रमण में अवंतिनरेश चंडप्रद्योत छल से उस प्रतिमा को अपहृत करके ले गया था, तथा मालवदेश की विदिशा नगरी में जिसका सर्वप्रथम ससमारोह रथ यात्रोत्सव किया गया था। राजा रानी की इच्छा थी कि भगवान् उनके राज्य और नगर में पधारें। एक बार भगवान महावीर स्वामी मगवन उद्यान में पधारे। समाचार पाते ही राजा रानी समस्त प्रजाजनों सहित प्रभु के दर्शनार्थ गए। प्रभु के उपदेश से राजदम्पत्ति इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भगवान् से श्रावक के बारह व्रत धारण कर लिए। धर्मध्यान, साधुओं की सेवा तथा वैयावत्य आदि में उन्हें विशेष आनंद आता था । १११
T
एक बार वीतभय नगर के चौक में एक वजनदार काष्ठ की पेटी एक नाविक ने लाकर रख दी। वहाँ के नागरिक व कई अन्य धर्मों के साधुसंत अपने मंत्रादि के प्रभाव से उस पेटी का ढक्कन खोलना चाहते थे, पर उन्हें सफलता नहीं मिली। राजा ने रानी को भी यह आश्चर्य देखने के लिए बुलवाया। रानी भी रथारूढ़ हो नगर के चौक में आई। रानी ने राजा की अनुमति प्राप्त कर सन्दूक के ऊपरी सतह को धोया, चन्दन, पुष्प अर्पित कर अरिहंत परमात्मा का स्मरण करते हुए बोली - "हे राग-द्वेष और मोह रहित तथा अष्ट प्रतिहार्य से आवत्त ऐसे देवाधिदेव अरिहंत परमात्मा मुझे दर्शन दो" । श्रद्धा एवं एकाग्रतापूर्वक किये गये नामस्मरण के प्रभाव से मंजूषा का ढक्कन धीरे से खुला और उसमें स्थित देव की प्रतिमा का दर्शन सबको हुआ । इसी घटना के फलस्वरूप राजा जैन धर्म के प्रति आस्थाशील बना। राजा, रानी और पुत्र अभीचिकुमार तीनों ने ही दीक्षा धारण कर आत्मकल्याण किया | १२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org