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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
५.७१ जैन कवियित्री कंती देवी : ई. सन् की १२ वीं शती.
साहित्य गगन की उज्जवल चंद्रिका कंती देवी का समय ईस्वी सन् ११०६ से ११४१ होयसल राजा विष्णुवर्द्धन के समय का है। प्रसिद्ध कवियित्री होने के कारण द्वार समुद्र गांव के होयसल नरेश लल्ला प्रथम के राजदरबार में कंति देवी को सम्माननीय और उच्च पद प्राप्त था। इसने राज दरबार के प्रसिद्ध कवि पंप को अपनी काव्य शक्ति से निस्तेज कर दिया था। कंती की अलौकिक प्रतिभा और विलक्षण बौद्धिकता के कारण कवि पंप इनसे डाह करता था । कठिन से कठिन समस्यायें पेश कर उसने परास्त करने का प्रयास किया, किन्तु वह सफल नहीं हुआ। एक दिन कवि पंप निश्चेष्ट सा हो पथ्वी पर गिर पड़ा। कंती पंप को मत समझ नजदीक बैठकर रूदन करने लगी.....पंप जैसे महान कवि से ही राज दरबार की शोभा थी, उस सुषमा के साथ मेरा भी कुछ विकास था इत्यादि, इन शब्दों को सुनकर पंप की आंखे खुल गई। उनका हृदय, घणा, पश्चाताप आदि कुत्सित भावों के प्रति विद्रोह कर उठा, कंती जैसी उदार, विशाल और पवित्र नारी के प्रति उसका सम्मान बढ़ा। कंति ने राजदरबार में अभिनव पम्प की अपूर्ण कविता की पूर्ति की थी ।
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कंती की काव्य प्रतिभा के संबंध में किंवदन्ति प्रचलित है। धर्मचंद्र नामक राजमंत्री का पुत्र अध्यापक था । उसने तीव्र बुद्धि संपन्न छात्रों के लिए "ज्योतिषमति तेल" नामक औषधी तैयार की थी। इस तेल की एक बूंद बुद्धि को प्रखर बनाने के लिए पर्याप्त थी। एक बार कंती अज्ञानवश, सम्पूर्ण तेल पी गई और दाह पीड़ा सहन न होने से कूप में गिर गई । औषधि के प्रभाव से बच गई, अपितु अद्भुत प्रतिभा से विभूषित हो बाहर आई ।" कंती देवी ने काव्य प्रतिभा से धर्म और नारी गौरव की सुरक्षा की है तथा आश्चर्यजनक काव्य प्रतिभा से जैन नारियों को नई दिशा प्रदान की है ।
५.७२ जक्कणब्बे : ई. सन् की १२ वीं शती.
शिलालेखों में इनके अपर नाम जक्कणिमब्बे, जक्कमब्बे तथा जक्किमब्बे भी मिलते हैं। गंगराज के ज्येष्ठ भ्राता बम्मदेव दण्डनायक की पत्नी जक्कणब्बे थी । वह सेनापति बोप्प की माता थी तथा मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छ के शुभचंद्र सिद्धांतदेव की शिष्या थी । वह जैन धर्म में भारी आस्था रखती थी। उसने "मोक्षतिलक" नामक व्रत किया था । इसने योग्यता और कुशलता से राज्य शासन का परिचालन करते हुए धर्म की गौरव पताका को फहराने के लिए ११२० ईस्वी में पाषाण की एक जिनमूर्ति खुदवाकर प्रतिष्ठित कराई थी। एक तालाब का निर्माण भी करवाया था । १११७ ईस्वी में पाषाण निर्मित एक जिनमन्दिर "साहलि" या "साणेहल्लि" ग्राम में करवाया था। इस प्रकार जक्कणब्बे राज्य कार्य में निपुण, जिनेंद्र शासन के प्रति आज्ञाकारिणी और लावण्यवती थी ।
५.७३ लक्ष्मीमती : (लक्कले) ई. सन् की १२ वीं शती.
होयसल वंशीय महाराज विष्णुवर्द्धन के सेनापति गंगराज की भार्या थीं। इसने शूरवीरता, राज्यसेवा और धर्मोत्साह से होयसल राजवंश को प्रभावित किया था। राज्य में जैन धर्म की नींव को मजबूत करने में बहुत सराहनीय कार्य किया था । लक्ष्मीमति अपने पति के युद्ध एवं राज्यकार्यों में सक्रिय सहायक रही थी । अतः उसे पति की "कार्यनीतिवधू" और "रणेजयवधू" भी कहा गया है । वह बड़ी धर्मात्मा और दानशीला थी। उसने पति की सहायता से जैनधर्म में वर्णित चारों दानों-आहारदान, अभयदान, औषधी दान, ज्ञानदान (शास्त्रदान) को सतत देकर "सौभाग्यखानी" की उपाधि प्राप्त की थी। ईस्वी सन् १११८ में उसने श्रवणबेलगोला में एक जिनालय बनवाया था, जो अब एरडुकट्टेबस्ति के नाम से प्रख्यात है। उसने अन्य कई जिनालय बनवाएं तथा जीर्णोद्धार भी करवाया था। वह गुरू शुभचन्द्र की शिष्या थी। लक्ष्मीमती ने अपने भ्राता बूचन के स्मरणार्थ, जैनाचार्य मेघचंद्र त्रैविद्यदेव के स्मरणार्थ, अपनी भगिनी देमति के स्मरणार्थ क्रमशः लेख नं. ४६, ४७ एवं ४६ लिखवाया था। ईस्वी सन् ११२१ मे "एरडुकट्ठेबस्ति” जिनालय में उसने समाधिपूर्वक प्राणों का त्याग किया था । १२
५.७४ हरियब्बरसि (हरियलदेवी) ई. सन् की १२ वीं शती.
आप होयसल वंश के राजा विष्णुवर्द्धन एवं प्रसिद्ध महारानी शांतलदेवी की सुपुत्री थी तथा बल्लालदेव की बहन थी । हरियब्बरसि के पति सिंह सामंत थे और गुरू गंडविमुक्त सिद्धांतदेव थे जो अपनी विद्वत्ता के लिए तत्कालीन राजाओं में विख्यात
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