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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
जिनभक्त था। उसने अपनी माता तथा पत्नी के समाधिमरण की स्मति में स्मारक भी स्थापित किये थे, गंगवाड़ी नामक प्रदेश राजा से पुरस्कार रूप में मांगा, वहां पर प्राचीन जैन तीर्थों और जिनमंदिरों का बाहुल्य था, जिसका जीर्णोद्धार गंगवाड़ी प्रान्त की समस्त आय से होता था। पुरस्कार में प्राप्त 'परम' ग्राम भी उन्होंने अपनी माता और भार्या द्वारा निर्मित जिनमंदिरों के लिए भेंट कर दिया था । ६६
५.७८ कुंदवड : वीं शती,
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कुंदवइ चोलवंश की राजकुमारी थी और प्रसिद्ध चोलनरेश राजराज प्रथम की बड़ी बहन थी । उसने तिरूमलै में एक जिनालय का निर्माण कराया था जो “कुन्दवई जिनालय" के नाम से प्रसिद्ध हुआ था । उसने दो जैन मंदिर और भी बनवाए थे। एक दक्षिण आरकाट जिले के दादापुर में और दूसरा त्रिचनापल्ली जिले के तिरूमलवाड़ी नामक स्थान में बनवाया था ।६७
५.७६ भीमा देवी : ई. सन् की १२ वीं शती.
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भीमादेवी विजयनगर के राजा देवराज प्रथम की धर्मपरायणा पत्नी थी। जैन धर्म के प्रति उसकी गहरी आस्था थी । भीमा देवी ने स्वयं का बहुत-सा द्रव्य देकर ईस्वी सन् १४१० के लगभग श्रवणगेलगोला के मंगायी बस्ति के लिए शांतिनाथ भगवान् की मूर्ति को स्थापित करवाया, जिसका निर्माण १३२५ ईस्वी के लगभग मंगायी नाम की एक राजनर्तकी ने कराया था। महारानी भीमादेवी की अत्यंत धर्मनिष्ठा के कारण ही राजा देवराज का भी जैनधर्म के प्रति अच्छा सद्भाव था। विजयनगर के राजा कांगु
राज्य को अपने नियंत्रण में लेकर जैनधर्म का प्रचार किया था। विजयनगर के राजा बुक्का ने निम्न प्रकार की घोषणा अपने राज्य में करवाई थी । "जब तक चांद व सूर्य रहेगा, तब तक जैन तथा वैष्णव दोनों संप्रदाय का समान आदर राज्य में रहेगा । वैष्णव तथा जैन एक ही धर्म हैं, समान मान्यता देनी चाहिए ।" दक्षिण भारत के प्रचार-प्रसार में राजा तथा उनके मंत्रीगणों ने तो सर्वप्रकार का सहयोग दिया, किन्तु मुनि तथा आचार्यों की प्रेरणा से महिलाओं ने अद्भुत कारीगरी वाले एवं सुन्दर मन्दिर बनवाकर जो योगदान स्थापत्य कला में दिया है उसकी दूसरी मिसाल भारतीय इतिहास तथा अन्य देशों के इतिहास में मिलना असंभव है। ऐशो आराम तथा भोग के सम्पूर्ण साधनों को त्याग कर धर्म तथा तपोनिष्ठ होकर जैन धर्म के सिद्धांतों को अपनाकर जीवन में चरितार्थ करने का जो कार्य दक्षिण भारत की महिलाओं ने किया उससे जैनधर्म ही नहीं, भारत के सर्व धर्म-संप्रदाय गौरवान्वित हुए हैं
राजीमती एक साहसी सन्नारी थी। उसने वासना के पंक में फँसे रथनेमि को उबारा था। उसने रथनेमि को मानव जीवन की बहुमूल्यता का भाव करवाया। भोगों की क्षणभंगुरता के प्रति सावधान किया। परिणामस्वरूप रथनेमि दीक्षित हुए तथा उन्होंने मुक्ति का वरण किया। उसका श्रेय राजीमंती को जाता है।
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