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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
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५.६१ माचिकब्बे एवं शांतिकब्बे : ई. सन् की १२ वीं शती.
शक संवत् १०३८ लेख सं. १३७ श्रवणबेलगोल के चंद्रगिरि पर्वत पर पोयसल सेठ की माता माचिकब्बे और नेमि सेठ की माता शान्तिकब्बे ने एक मन्दिर का निर्माण कराया, जो "तेरिन-बस्ति" के नाम से विख्यात है । इस मन्दिर के सम्मुख एक रथ (तेरू) के आकार की इमारत बनी हुई है, अतः इसे "तेरिन-बस्ति” के नाम से पुकारा जाता है । रथाकार मन्दिर पर चारों ओर बावन जिनमूर्तियाँ खुदी हुई है । इस मन्दिर में बाहुबली की मूर्ति होने से इसे बाहुबली बस्ति भी कहते हैं । यह जिनालय नरेश विष्णुवर्द्धन के समय का है ।५१ ५.६२ अक्कादेवी : ई. सन् की ११ वीं शती.
अक्कादेवी चालुक्य वंशी राजा सत्याश्रय की बहिन एवं दशवर्मन की पुत्री थीं । राज्य कार्य में दक्ष होने के कारण वे राज्य के एक प्रांत की गवर्नर नियुक्त की गई थी (ईस्वी सन् १०३७) । राज्य शासन में सहयोग देने के लिए उनके साथ सात मंत्रियों की एक कौंसिल थी, जो प्रांत की व्यवस्था सुचारू रूप से करते थे, जिसमें अक्कादेवी स्वयं राजस्व मंत्री थी । इनके शासन-काल में राजस्व मंत्री को ही धार्मिक कार्य के लिए सरकारी जमीन बिना मूल्य देने का अधिकार था । इसी प्रकार राजस्व अधिकारी को यह भी आदेश था कि सरकारी कर वसूली में से कुछ धनराशि धार्मिक कार्यों के लिए दी जाये । कुछ उच्च अधिकारियों को धार्मिक कार्यों के लिए गांव तक दे देने के अधिकार राज्य की ओर से प्राप्त थे। राज्य शासन द्वारा धार्मिक कार्य में सहूलियत प्राप्त होने से कई धनाढ्य तथा मध्यम स्थिति के नागरिक अपने धन को धार्मिक कार्यों में लगाकर उसका सदुपयोग करते थे । ऐसे ही एक दान का वर्णन एक शिलाफलक पर प्राप्त हुआ है । चालुक्यनरेश विक्रमादित्य के समय सिंगवाड़ी क्षेत्र की नालिकब्बे नाम की महिला ने अपने स्वर्गीय पति की स्मति में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। इस मन्दिर के खर्च के लिये राज्य द्वारा भूमि तथा अन्य वस्तुएं दी गई जिसका शिलालेख में उल्लेख प्राप्त होता है। ५.६३ केतलदेवी : ई. सन् की ११ वीं शती.
होयसल राजवंश के राजा आहवमल्ल (ईस्वी सन् १०४२–१०६८) के शासनकाल में यह महिला "पोन्नवाड़ अग्रहार" की शासिका थीं । इन्हें सोमेश्वर की महारानी केतलदेवी के नाम से संबोधित किया जाता था। इन्होंने त्रिभुवन-तिलक जिनालय में कई उप-मन्दिरों का निर्माण ई. सन् १०५४ में करवाया था। उसके खर्च के लिए महासेन मुनि को दान में बहुत सा धन भी दिया था ताकि मन्दिर का खर्च सुविधा से चल सके। प्रसिद्ध अर्हत् शासन का स्तम्भ चाकिराज रानी का दीवाना था। इसी राज्य के बेल्लारी जिले का कोंगली नामक स्थान पुरातन काल से एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा था। यहां तभी से एक महत्वपूर्ण जैन विद्यापीठ की स्थापना हुई थी। इस महत्वपूर्ण जैन विद्यापीठ में कई शिलालेखों का संग्रह किया गया था ।२ ५.६४ चन्द्रवल्लभा : ई. सन् की १० वीं शती.
चंद्रवल्लभा राष्ट्रकट नरेश अमोघवर्ष रासकता की पत्री तथा राजा राचमल द्वितीय की पत्नी थी। अपने पिता के पदचिन्हों पर चलने वाली इस राजकुमारी ने अपनी दढ़ आस्था के कारण जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में विशेष सफलता प्राप्त की थी।
श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. ४८६ में उल्लेख मिलता हैं कि, उसके अपने गुरू शुभचंद्र सिद्धांतदेव की प्रेरणा से उसने एक विशाल जैन प्रतिमा की स्थापना करवाई थी। पति के समान चन्द्रवल्लभा भी बारह सौ (१२००) ब्राजिल के उच्च पदाधिकारी के पद पर कार्य करती थी जो उस समय के इतिहास में गौरवशाली पद माना जाता था। अपने व्यक्तिगत जीवन में व्रतों का पालन करते हुए उसने अंतिम समय में विधिपूर्वक संलेखना व्रत धारण कर शरीर का त्याग किया था। वीरता तथा पराक्रम से युक्त यह महिला जिनेंद्र शासन की भक्त तथा अपनी योग्यता एवं सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध थी। इसने सात-आठ वर्ष तक अपने प्रदेश पर सुशासन किया था। अंत में ई. सन् ६१८ में वह रूग्ण हुई तो शरीर और संसार को क्षण-भंगुर जानकर उसने अपनी पुत्री को संपत्ति एवं पदभार सौंप दिया तथा स्वयं बन्दनि तीर्थ की वसति में जाकर श्रद्धा के साथ सल्लेखना व्रत पूर्वक देह का त्याग किया था।३
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