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अनुपमादेवी और सुहड़ादेवी । अनुपमादेवी से महाप्रतापी, प्रतिभाशाली, उदार हृदय लूणसिंह नामक पुत्र पैदा हुआ। वह राजकार्य में निपुण था तथा पिता के साथ अथवा अकेला भी युद्ध, संधि-विग्रहादि कार्यों में भाग लेता था। गुजरात की राजधानी अणहिलपुरपाटन का उत्तराधिकार भीमदेव द्वितीय को प्राप्त हुआ था । उस समय गुजरात में धोलका में, महामण्डलेश्वर सोलंकी अर्णोराज का पुत्र लवणप्रसाद राजा था। और उसका पुत्र वीर धवल युवराज था । ये दोनों भीमदेव के मुख्य सामंत थे, इस कारण उन्होंने अपनी राज्य सीमा को बढ़ाने और सम्हालने का कार्य लवणप्रसाद को सौंपा और वीरधवल को अपना युवराज बनाया। इन्हीं वीरधवल के मंत्री थे प्रागवाट् वंशी वस्तुपाल और तेजपाल । मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल ने कई युद्ध किये थे और बुद्धिबल से उनमें विजय प्राप्त की थी। धर्म प्रभावना के कार्यों में धरणाशाह का नाम भी गणनीय है। इनके दादा का नाम नाग सांगण, पिता का नाम कुरपाल तथा माता का नाम कमिल या कर्पूरदे था । ये दो भाई थे रत्नाशाह और धरणा शाह । ये सिरोही के नंदियाग्राम के मूल निवासी थे । तथा आगे मालवा तत्तपश्चात् मेवाड़ में कुम्बलगढ़ के समीप गालगढ़ आ बसे, जहाँ इन्होंने राणकपुर का जैन मंदिर बनवाया । इन्होंने अजाहरि सालेर और पिण्डवाड़ा में कई धार्मिक कार्य सम्पन्न किये थे । १३
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
१२वीं शताब्दी के मालवादेश की धारा नगरी में परमार राजा भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम विद्वानों का आश्रयदाता था। राजा नरवर्मदे ( १२वीं शताब्दी) जैनधर्म का अनुरागी था। उज्जैन के महाकाल मंदिर में जैनाचार्य रत्नदेव और शैवाचार्य विद्याशिववादी के साथ शास्त्रार्थ उसी के समय में हुआ था। जैनयति समुद्रघोष और श्रीवल्लभसूरि जी का भी सम्मान राजा ने किया था। पंडित आशाधर जी की पत्नी सरस्वती, उनकी सच्ची अनुगामिनी थी। उसने अपने पति की साहित्यिक रचनाओं में महत्वपूर्ण सहयोग दिया था । श्रीमती रत्नी पंडितजी की माँ थी तथा कमलश्री भक्त श्राविकाओं में में एक थी। ग्यारहवीं शताब्दी के राजा विक्रमसिंह एवं कच्छपसिंह घात ग्वालियर के जैन मतानुयायी राजा थे। उसी समय में श्रेष्ठी जासूक का पुत्र वैभवशाली जयदेव हुआ था। उसकी पत्नी यशोमती सर्वगुणों से सम्पन्न और रूपवान् थी । उनके ऋषि और दाहड़ दो सुपुत्र थे । श्रेष्ठी दाहड़ ने चण्डोभ में विशाल जिनमंदिर का निर्माण करवाया था । १५ १२वीं शताब्दी में राजस्थान के स्थली प्रदेश में अम्बर नाम के गहस्थ वैद्याचार्य हु थे । उनके सुपुत्र पापाक तथा प्रपौत्र आलोक, साहस और लल्लुक थे । आलोक की पत्नी हेला के तीन पुत्र हुए थे । बाहुक, भूषण और लल्लाक। बाहुक की सीड़का नाम की पत्नी थी । भूषण की दो पत्नी थी लक्ष्मी और सीली । ई. सन् की ग्यारहवीं शताब्दी में गंगरस सत्यवाक्य नामक श्रद्धानिष्ठ जिनोपासक राजा की रानी बाचलदेवी ने गंगवाड़ी के बन्निकेरे नगर में भव्य जिनालय का निर्माण करवाया था। चालुक्यराज सोमेश्वर की पटरानी माललदेवी जिनधर्मी थी। मारसिंह देव द्वितीय की छोटी बहन सुग्गियब्बरसि तथा उसकी बडी बहन कनकियब्बरसि ने जिनमंदिर बनवाये तथा उनकी व्यवस्था के लिए भूमि का दान दिया था । १६
बारहवीं शताब्दी में जैन नर रत्नों की श्रंखला में भामाशाह का नाम अत्यंत गौरवास्पद है। उन्होंने मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप को उस समय अपना सारा वैभव - कोष दे दिया, जब वे निराशा के कगार पर खड़े मेवाड़ छोड़ देने की तैयारी में थे। भामाशाह का यह उदार, मित्रवत् सहयोग महाराणा को उस दुष्काल में यदि नहीं मिलता तो स्पष्ट है कि मेवाड़ का इतिहास विषम स्थितियों की भेंट चढ़ गया होता।
बारहवीं शताब्दी के पश्चात् राजस्थान में जिन मंदिरों का निर्माण राज्यकुल और श्रेष्ठी वर्ग के जीवन स्तर का परिचय और प्रतिष्ठा की कसौटी बन गया। वह राजस्थान में जैनों का उत्कर्ष काल था । ऐसे समय जैन श्रावक होते हुए भी मंदिर - निर्माण में व्यय करने की जगह राष्ट्र की सुरक्षा हेतु उन्होंने धन संपदा दी। कर्नल टॉड का कहना है कि वह धन इतना था कि उस धन से बारह वर्षों तक, पच्चीस हजार सैनिकों का पूरा खर्च चलाया जा सकता था । "
१३वीं शताब्दी में लवणप्रसाद के पुत्र वीरधवल के मंत्री थे भ्रातद्वय वस्तुपाल और तेजपाल । जैन धर्म का प्रभाव बढ़ाने के लिए जितना द्रव्य उन्होंने व्यय किया था, उतना किसी अन्य ने किया हो, ऐसा इतिहास में नहीं मिलता। इसी राजघराने में त्रिभुवनपाल की पत्नी कश्मीरादेवी थी, जिसके कुमारपाल आदि तीन पुत्र हुए तथा प्रमिला एवं देवल नाम की दो पुत्रियाँ हुई थी
जो जैन धर्म की उपासिकाएँ थीं।
ईस्वी सन् बारहवीं शताब्दी के मध्य में राजा अर्णोराज के पुत्र विग्रहराज चतुर्थ एवं पथ्वीराज द्वितीय का अनुज, गुजरात के सोलंकी नरेश जयसिंह सिद्धराज का दौहित्र, दिल्ली के अनंगपाल तोमर का जामाता सोमेश्वर चौहान अपर नाम चाहड़, तथा
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