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आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
कदम्बवंश की स्थापना कदम्ब नामक वक्ष-विशेष के नाम पर ईसा की दूसरी शती के मध्य के लगभग, सातवाहनों के एक सामंत पुक्कण अपरनाम त्रिनेत्र ने की बताई जाती है। इनका कुलधर्म मुख्यतया ब्राह्मण था, किंतु इस वंश में अनेक राजा परम जैन हुए । दूसरा राजा शिवकोटि अपने भाई शिवायन के साथ स्वामी समंतभद्र द्वारा जैन धर्म में दीक्षित कर लिया गया था। शिवकोटि का पुत्र श्रीकंठ था तथा पौत्र शिवस्कंदवर्मन का उत्तराधिकारी मयूरवर्मन था, तीसरी शती के उत्तरार्ध के समय में ही कंदब राज्य शक्तिसंपन्न एवं सुप्रतिष्ठित हो सका था। उसी ने वैजयन्ती (वनवासी) को राजधानी और हल्सी (पलाशिका) को उपराजधानी बनाया था। उसका पुत्र भगीरथ और पौत्र रघु एवं काकुस्थवर्मन थे। लगभग ई. सन् ४०० के हल्सी ताम्रशासन से विदित होता है कि यह नरेश जैनधर्म का भारी पोषक था। उसका पुत्र शान्तिवर्मन एवं पौत्र मगेशवर्मन ने जैन मंदिर बनवाया एवं मंदिर की व्यवस्था के लिए भूमिदान आदि दिया। मगेशवर्मन के पश्चात् उसकी प्रियपत्नी कैकय राजकन्या प्रभावती से उत्पन्न पुत्र रविवर्मन राजा हुआ। इस प्रकार कदम्ब राजवंश एक सुशासित, सुव्यवस्थित, शांति और समद्धिपूर्ण राज्य था। कदम्ब नरेशों की स्वर्णमुद्रायें अति श्रेष्ठ मानी जाती है। उनके समय में विविध जैन साधु-संघ और संस्थाएँ सजीव एवं प्रगतिशील थी। वे राजा तथा प्रजा की लौकिक उन्नति एवं नैतिकता में साधक और सहायक थी। जैन धर्म के विभिन्न संप्रदाय-उपसंप्रदाय उनके समय में परस्पर सौहार्दपूर्वक रहते हुए स्व-पर कल्याण करते थे।
पल्लव वंश की स्थापना दक्षिण भारत के धुर पूर्वीतट पर तमिलनाडु में दूसरी शती ई. के उत्तरार्ध में हुई। कीलिकवर्मन चोल का प्रथम पुत्र पल्लव वंश का संस्थापक था तथा अन्य पुत्र शांतिवर्मन जैनाचार्य समंतभद्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। पल्लवों का राज्य-चिन्ह वषभ था, अतः वे वषध्वज भी कहलाए। संभव है प्रारंभ में उनमें वषभलांछन ऋषभदेव (आदि तीर्थंकर) की पूजा उपासना विशेष रही हो। समय के साथ पल्लव वंश की कई शाखाएँ उपशाखाएँ होती रही ! तीसरी शाखा में उत्पन्न सिंहविष्णु का उत्तराधिकारी महेंद्रवर्मन प्रथम (६००-६३० ई.) प्रसिद्ध प्रतापी एवं पराक्रमी नरेश था। वह जैनधर्म का अनुयायी था। कई जिनमंदिर तथा सित्तन्नवासल के प्रसिद्ध जैनगुहामंदिर उसी ने बनवाए थे। इन चैत्यालयों का निर्माण कराने के कारण उसे “चैतन्यकंदर्प" की उपाधि प्राप्त हुई थी। शैव सन्त अप्पर के संपर्क में आकर राजा शैव हो गया था, तब उसने जैनों पर अत्याचार किये, कई जैन मंदिरों को शैव मंदिरों में परिवर्तित किया। पल्लवों की ही एक शाखा नोलम्बवाड़ी के नोलम्बों की थी, और उनमें जैनधर्म की प्रवत्ति प्रायः निरन्तर बनी रही। अंतिम पल्लवनरेशों में नन्दिवर्मन ततीय (८४४-६० ई.) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, जिसकी जननी शंखादेवी राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री थी, अपने नाना की ही भांति जैनधर्म का समर्थक था। उसने पाण्ड्यनरेश श्रीमारन को पराजित करके उसकी राजधानी मदरा को भी लूटा था ।
चालुक्य वंश की वह शाखा जिसके शासकों ने बीजापुर जिले में स्थित बादामी अथवा वातापी को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया, वे इतिहास में बादामी के चालुक्य कहलाए। यह चालुक्यों का सबसे प्राचीनतम व मूल वंश है। ई. की पाँचवीं शती के मध्य में महाराष्ट्र प्रदेश में इस राज्यशक्ति का उदय हुआ। छठी शताब्दी में राजा जयसिंह तथा उसके पुत्र रणराग ने इस राज्य की सुदढ़ नींव जमाई तथा सातवीं शताब्दी में तो दक्षिणापथ का ही नहीं, वरन् संपूर्ण भारतवर्ष का यह समद्ध एवं शक्तिशाली राज्य रहा था। इस वंश के प्रमुख शासक पुलकेशिन द्वितीय विनयादित्य, विजयादित्य आदि थे। विनयादित्य राजा की पुत्री कुमकुमदेवी ने एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया था।५
वेंगि के चालुक्य, चालुक्य राजवंश की दूसरी महत्वपूर्ण शाखा थी। क्योंकि इस वंश के शासकों ने वेंगी से शासन किया, इसलिए वे वेंगी के चालुक्य कहलाए। वेंगी राज्य वातापी राज्य के पूर्व में स्थित था, इसलिए इस राजवंश को पूर्वी चालुक्य भी कहा जाता है। इस वंश का संस्थापक सम्राट् पुलकेशी द्वितीय के अनुज कुब्जविष्णुवर्द्धन था। इस वंश के अनेक शासकों ने (लगभग २७.) आंध्रप्रदेश पर लगभग ५०० वर्ष तक राज्य किया। कुब्जविष्णुवर्द्धन की रानी जैन धर्मी थी । विजयादित्य प्रथम की रानी अय्यन महादेवी ने ई. ७६२ में जैन धर्म की प्रभ पना हेतु दान दिया था। इस वंश में अम्मराज द्वितीय का प्रधान दुर्गराज सेनापति था । । कुलचुम्बरू दानपत्र के अनुसार इस नरेश ने चालुक्यवंश के पट्टवर्धिक घराने की राजमहिला चामकाम्बा जो शायद स्वयं राजा की । गणिकापत्नी थी, के निवेदन पर सर्वलोकाश्रय-जिनभवन के लिए उक्त ग्राम दान किया था । संभवतया इस महिला ने इस मंदिर ।
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