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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
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केंद्र बन गया था। अनेक ग्रंथ रचे गये थे अनेक ग्रथों की प्रतिलिपियाँ की गई थी। महाराजा डूंगरसिंह की पटरानी चाँदा बड़ी जिनभक्त थी पुत्र कीर्तिसिंह भी परम धार्मिक थे। पंद्रहवीं शताब्दी में मुद्गलगोत्री अग्रवाल जैन साहू आत्मा का पुत्र साहु भोपा था, जिसकी भार्या नान्हीं थी। चार पुत्र क्षेमसी, महाराजा असराज, धनपाल और पालका थे। क्षेमसी की भार्या नीरादेवी थी, तथा काला और भोजराज उसके दो पुत्र थे। काला की प्रथम पत्नी सरस्वती से पुत्र मल्लिदास, दूसरी पत्नी सरा से चंद्रपाल पुत्र पैदा हुआ था। साहु काला ने गोपाचलदुर्ग (ग्वालियर) में भट्टारक यश कीर्तिदेव के उपदेश से भगवान् आदिनाथ का मंदिर निर्माण करवाया था तथा उसकी प्रतिष्ठा पण्डित रइधू से करायी थी।३०
पंद्रहवीं शताब्दी में ही राजा डूंगरसिंह के राज्य में खण्डेलवाल जातीय बाकलीवालगोत्री सेठ लापू ने अपने पुत्रों साल्हा और पाल्हा तथा अपनी भार्या लक्ष्मणा और पुत्रवधुओं सुहागिनी एवं गौरी सहित अनेक जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करायी थी। ग्वालियर के तोमर नरेश कीर्तिसिंह के समय में भट्टारक गुणभद्र की आम्नाय के भक्त जैसवालकुलभूषण उल्लासाहू की द्वितीय पत्नी भावश्री से उत्पन्न उसके चार पुत्रों में ज्येष्ठ धनकुबेर पद्मसिंह थे, जिनकी पत्नी का नाम वीरा था। परिवार सहित पद्मसिंह ने चौबीस जिनालयों का निर्माण कराया, विभिन्न ग्रंथों की कुल मिलाकर एक लाख प्रतियाँ लिखवायी तथा अन्य धर्मकार्य किये थे। तेरहवीं शताब्दी में लवणप्रसाद के पुत्र वीरधवल के मंत्री थे भ्रातद्वय वस्तुपाल और तेजपाल । जैनधर्म का प्रभाव बढ़ाने के लिए जितना द्रव्य उन्होंने व्यय किया था, उतना किसी अन्य ने किया हो, ऐसा इतिहास में नहीं मिलता। इसी राजघराने में त्रिभुवनपाल की पत्नी कशमीरादेवी थी, जिसके कुमारपाल आदि तीन पुत्र हए तथा प्रमिला एवं देवल नाम की दो पत्रियाँ हई थीं. जो जैन धर्म की उपासिकाएँ थी।३१ ५.५ ओसिया तीर्थ. एवं ओसवाल जाति की उत्पति का इतिहास
भारतवर्ष के क्षत्रियों के लिए यह स्थान बहुत प्रसिद्ध है। शोधकर्ता एवं इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसाद ने कोटा राज्य के अटरू गांव से वि. सं. ५०८ के एक शिलालेख की सूचनाओं एवं अन्य साधनों से यह ज्ञात होता हैं कि ओसवालों की उत्पत्ति का समय विक्रम की दूसरी या तीसरी शताब्दी है। रत्नप्रभसरिने दूसरी शताब्दी में यहीं से ऋषभ-वषभ- उसभ-उस-असवाल-ओसवाल वंश की नींव डाली थी। उसवाल का प्रतीकार्थ हैं ऋषभ प्रणीत जैन धर्म के अनुयायी। इन्हीं ओसवालों ने बाद में ओसिया नगर मे ओसिया माता का मंदिर बनवाया था।
राजस्थान के ऐतिहासिक नगर जोधपुर से ५२. कि. मी. दूर उत्तर पश्चिम दिशा में ओसिया स्थित है। ओसिया ग्राम जैन धर्म और स्थापत्य का प्रमुख केंद्र है। अभिलेखों और साहित्यिक ग्रंथों में ओसियाँ को "उपकेशपट्टन "अथवा "उपशीशा" कहकर पुकारा गया है। ओसवाल जाति का मूल निवास स्थान ओसियाको महाजनों की ओसवाल जाति की उत्पत्ते से संबंधित माना जाता है। यहाँ जनसाधारण में प्रचलित एक कथानक के अनुसार ओसिया का राजा उप्पलदेव (श्रीपुंज) चामुण्डा देवी का कट्टर भक्त था। एक बार प्रसिद्ध जैनाचार्य रत्नप्रभसूरी (भ. पार्श्वनाथ के सातवें पट्टधर) अपने ५०० शिष्यों सहित चातुर्मास करने के लिए ओसिया आये, लेकिन वहाँ पर जैन मुनियों हेतु निवास की उचित व्यवस्था न होने से उन्होंने किसी अन्य स्थान पर जाकर चातुर्मास करने का निश्चय किया। भगवती चामुण्डा माता की प्रेरणा से कुछ साधुओं ने आचार्य रत्नप्रभसूरी से ओसिया में ही चातुर्मास करने की प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। एक दिन ओसिया के राज-परिवार के किसी बालक को काले नाग ने डस लिया। परिणाम स्वरूप उस बालक की अकाल मत्यु हो गई। लेकिन आचार्य रत्नप्रभसूरी ने अपने आध्यात्मिक प्रभाव से उस बालक को पुनः जीवित कर दिया। इस चमत्कार से प्रभावित होकर राजा और प्रजा भेंट लेकर आचार्य जी के पास पहुँचे। लेकिन आचार्य महोदय ने भौतिक भेंट लेने से मना कर दिया। राजा ने आचार्य रत्नप्रभसूरि जी से उनकी इच्छा के अनुरूप सेवा का मौका देने की प्रार्थना की। आचार्य रत्नप्रभसूरि जी ने राजा से कहा कि, उनकी तो एक मात्र इच्छा यही है कि ओसिया के सभी लोग अहिंसामय जैनधर्म स्वीकार कर ले। आचार्य रत्नप्रभ सूरी जी से जो लोग दीक्षित हुए, वे और उनके वंशज ओसवाल कहलाए। आचार्य रत्नप्रभसूरी जी का ओसियां की जनता पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वहाँ के राजा ने स्वयं भी जैन धर्म स्वीकार कर लिया और वहाँ की चामुण्डामाता की पशुबली को भी बंद करवा दिया। इस घटना के बाद वहाँ की अधिष्ठात्री देवी को सच्चियाय माता कहकर उनकी पूजा की जाती है।
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