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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
४.३८ भाग्यवती : ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी.
विक्रमादित्य के समकालीन राजा तपनराज की राजधानी सौराष्ट्र के काम्पिल्यपुर नगर में अनेक जैन श्रेष्ठी निवास करते थे। इसी नगर में भावड़शाह नामक धर्मानुयायी थे । माल से लदे हुए बारह जहाज डूबने, सब कुछ गंवा बैठने के बाद भी वे प्रसन्नचित्त रहे। संतान के अभाव के दुःख को समता से सहन किया तीर्थ यात्राएँ भी कीं । भाग्यवती ने हर संकट में अपने पति के धर्म तथा दान में सहयोगिनी रही। उन्हें उत्साहित करती रही। दुःख में भी धर्म भावना, नेकी, ईमानदारी का साथ नहीं छोड़ा। सुख का सुखद सूर्य उदित हाने पर वह मधुमती (महुआ) की राजरानी बनी। उसका एक तेजस्वी पुत्र हुआ जिसका नाम जावड़ कुमार रखा गया। भाग्यवती के जीवन से प्रेरणा प्राप्त होती है कि समत्वभाव तथा शांति से सुख दुःख में भी आनंदित रहा जा सकता है।
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४.३६ धनवती : ई. पू. ५२७-५०७ .
धनवती उड्रदेश के महाराजा यम की रानी थी। महाराजा यम ने सुधर्मा स्वामी के समीप दीक्षा ग्रहण की थी। उस प्रसंग पर महारानी धनवती ने श्राविका व्रतों को ग्रहण किया था। तत्पश्चात् धनवती ने जैन धर्म के प्रसार के लिए कई उत्सव किये थे। वह परम श्रद्धालु और धर्म प्रचारिका नारी थी । धनवती के प्रभाव से संपूर्ण परिवार जैन धर्मानुयायी बन चुका था । महारानी की धर्म निष्ठा का गहरा प्रभाव जनता पर पड़ा। समस्त उड्रदेश की प्रजा जैन धर्मानुयायिनी बन गई थी । ६१
४. ४० धनदेव की पत्नी : ई. पू. ३५७-३१२.
श्रावस्ती नगरी में आचार्य स्थूलभद्र के घनिष्ठ मित्र श्रेष्ठी धनदेव सपरिवार निवास करता था । आचार्य स्थूलभद्र मित्र को प्रतिबोध देने की भावना से विशाल जनसंघ के साथ धनदेव के घर पर पधारे। महान् आचार्य के पदार्पण से धनदेव पत्नी परम प्रसन्न हुई। उसने श्रद्धाभाव से मस्तक भूतल पर टिकाकर वंदन किया। आचार्य स्थूलभद्र ने धनदेव के विषय में पूछा । खिन्नमना होक. वह बोली आर्य! दुर्भाग्य से घर की संपत्ति नष्टप्रायः हो गई है, अतः व्यवसाय के लिए धनदेव परदेश गए है।
श्रेष्ठी धनदेव के आंगन में स्तंभ के नीचे विपुलनिधि निहित थी । धनदेव इससे सर्वथा अनजान था। आर्य स्थूलभद्र ने ज्ञान बल से इसे जाना एवं मित्र की पत्नी से बात करते समय उनकी दष्टि उसी स्तंभ पर केंद्रित हो गई थी। हाथ के संकेत भी स्तंभ की ओर थे। आर्य स्थूलभद्र ने कहा - बहन ! संसार में सुख और दुःख धूप छाँववत् आते जाते है । धनदेव पत्नी को धर्मोपदेश के प्रभाव से अनुपम शांति प्राप्त हुई। कुछ दिनों के पश्चात् श्रेष्ठी धनदेव दयनीय स्थिति में पुनः घर लौट आए। पत्नी ने आर्य स्थूलभद्र के पदार्पण से लेकर सारी घटना कह सुनाई। उसने यह भी बताया कि उपदेश देते समय आर्य स्थूलभद्र स्तंभ के अभिमुख बैठे थे। उनका हस्ताभिनय भी इसी स्तंभ की ओर था । बुद्धिमान श्रेष्ठी ने यह सुनकर स्तंभ के नीचे से धरा को खोदा, विपुल संपत्ति की उसे प्राप्ति हुई। आर्य स्थूलभद्र के समीप धर्मोपदेश सुनकर धनदेव व्रतधारी श्रावक बना । धनदेव पत्नी भी उसी राह पर आगे बढ़ी। धनदेव की पत्नी की बुद्धिमत्ता एवं समझ से संपूर्ण परिवार खुशहाल बना । धनदेव भी धर्मराह पर अग्रसर हुआ ।६२
४.४१ लक्ष्मी : ई. पू. ३५७-३१२.
मगध की राजधानी पाटलीपुत्र थी । वहाँ पर नंद साम्राज्य के अमात्य गौतम गोत्रीय शकडाल थे। शकडाल की पत्नी का नाम लक्ष्मी था। “यथा नाम तथा गुणवान्" लक्ष्मी धर्म-परायणा, सदाचार संपन्न, शीलवती विदुषी नारी रत्न थी। फलस्वरूप उसने कुशाग्र प्रतिभा संपन्न सात पुत्रियाँ तथा दो पुत्रों को जन्म दिया । पुत्रियों के नाम थे यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा । सातों पुत्रियों की तीव्रतम स्मरण शक्ति विस्मयकारक थी। प्रथम पुत्री प्रथम बार में दूसरी दो बार में क्रमशः सातवीं पुत्री सात बार में अश्रुत श्लोक श्रंखला को सुनकर उसे कण्ठस्थ कर लेने में और ज्यों का त्यों तत्काल उसे दोहरा देने में समर्थ थी । लक्ष्मी का कनिष्ठ पुत्र श्रीयक भक्तिनिष्ठ था, सम्राट् नंद के लिए गोशीर्ष चंदन की तरह आनंददायी था । स्थूलभद्र लक्ष्मी का अत्यंत मेधा संपन्न पुत्र था। जिसने आगे चलकर भद्रबाहु से १० पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर श्रुतपरंपरा को उत्तरोत्तर बढ़ाया था। संतानों की प्रतिभा संपन्नता के पीछे माता का बहुत बड़ा योगदान रहा । ३ सातों पुत्रियाँ एवं दोनों पुत्रों ने आगे चलकर दीक्षा धारण की, इसमें भी माता के दिये गये धार्मिक संस्कारों की ही परिणति कारणभूत बनी ।
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