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महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
स्थूलभद्र बारह वर्ष तक अपने कर्तव्य से विमुख होकर उसके आवास पर रहे। कोशा भी मंत्री पुत्र प्रतिभाशाली स्थूलभद्र को पाकर धन्य हो उठी। कालान्तर में स्थूलभद्र राज्यकारणों से पिता की मत्यु को जानकर राजा द्वारा मंत्रीपद स्वीकार करने के निमंत्रण को ठुकराकर आचार्य संभूति विजय के चरणों में दीक्षित हुए। कुछ समय के बाद गुरू आज्ञा से स्थूलभद्र ने कोशा के रंगमहल में वर्षावास किया और मुनि की अद्भुत संयम दढ़ता ने उसके जीवन को परिवर्तित कर दिया। यह वही रुप कोशा है जिसने श्राविका के व्रतों को धारण किया तथा साधु को संयम में स्थिर किया था।
चंद्रगुप्त मौर्य के सामने दो स्पष्ट उद्देश्य थे। प्रथम, वह मगध में से नंदों के अत्याचारी शासन का अंत करना चाहता था। दूसरा वह भारत को यूनानी दासता से मुक्त करवाना चाहता था। चंद्रगुप्त और कौटिल्य ने मिलकर पंजाब को अपने अधीन किया। फिर मगध पर आक्रमण कर ई. पू. ३२१ में शक्तिशाली मगध साम्राज्य को अधीन किया, स्वतंत्र शासक होने की घोषणा की। किंवदन्ति है कि चंद्रगुप्त की माँ मुरा थी, अतः उनका मुरा से मौर्य नाम प्रसिद्ध हुआ। पराजित राजा नंद अपनी पुत्री सुप्रभा को स्थ में साथ लेकर राजधानी से दूर जा रहा था। सुप्रभा वीर चंद्रगुप्त को देखकर आकर्षित हुई। राजा नंद ने परिस्थितियों को देखते हुए उसका विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया। सुप्रभा श्रमणोपासिका थी तथा आचार्यों एवं साधुओं की सेवा में तत्पर रहती थी। सुप्रभा ने अपने विशिष्ट गुणों के परिणामस्वरूप सम्राट् चंद्रगुप्त के राजा की उद्घोषणा के साथ ही अग्रमहिषी का उच्च पद प्राप्त किया था।१५ __मौर्य वंश के पूर्व मगध में नंदराजाओं ने जैन धर्म को राज्याश्रय दिया था। मौर्य वंश के प्रतापी राजा चंद्रगुप्त ने नंद को पराजित कर मगध पर अपना राज्य स्थापित किया। उसके राज्य में भी जैन धर्म को पूर्ण राज्याश्रय प्राप्त था। चंद्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर तक, पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर-पश्चिम में हिंदुकुश पर्वत तक। जी.के. पिलाई के अनुसार "चंद्रगुप्त मौर्य सा विशाल साम्राज्य न तो भारत में इससे पूर्व था, न बाद में देखने में आया। जैन परंपरा के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य अपने जीवन के अंतिम दिनों में राज्य एवं वैभव का परित्याग कर मुनि दीक्षा अंगीकार की। चौबीस वर्ष तक शासन कर राजगद्दी अपने पुत्र बिंदुसार को सौंप दी। स्वयं अपने गुरू भद्रबाहु के साथ मैसूर (कर्नाटक) चले गये। श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर उनका समाधिमरण हुआ। यह घटना ई. पू. २६८ की है। चंद्रगुप्त के राज्यकाल में कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' तथा भद्रबाहु ने “कल्पसूत्र' नामक बहुमूल्य ग्रंथों की रचना की।
___ कालांतर में बिंदुसार का पुत्र अशोक चंद्रगुप्त मौर्य के दक्षिण की ओर प्रस्थान करने पर पाटलीपुत्र तथा उज्जयिनी का शासक बना। अशोक की एक पत्नी जैन असन्ध्यमित्रा थी, जिनका पुत्र कुणाल था। कुणाल की पत्नी भी जैनधर्मानुयायिनी थी। कुणाल का पुत्र सम्प्रति अशोक के उत्तराधिकारियों में से सबसे योग्य था। ई. पू. २१६ में वह सिंहासन पर बैठा । वह जैन धर्मानुयायी था, उसने जैन धर्म के प्रसार के लिए अथक प्रयास किये। इतिहासकार उसे मौर्य साम्राज्य का द्वितीय चंद्रगुप्त मानते है।"
__प्राचीनकालीन भारतीय इतिहास में उत्तर भारत में गुप्त काल (३२० ई. - ५४० ई.) को सबसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। समद्रगुप्त और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य गुप्त वंश के दो सर्वाधिक महान और शक्तिशाली शासक थे। ३२० ई. में चंद्रगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा। उसने गुप्त संवत् चलाया तथा भगवान् महावीर के कुल में उत्पन्न पाटली पुत्र के तत्कालीन लिच्छविनरेश की एक मात्र दुहिता राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया था। चंद्रगुप्त एवं कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त गुप्त वंश के महान् शासकों में एक था। उसने न केवल उत्तर भारत में विजय प्राप्त की अपितु दक्षिण भारत के बारह शासकों को भी पराजित किया था। पाटलीपुत्र गुप्त साम्राज्य की प्रधान राजधानी थी और उज्जयिनी उपराजधानी थी। ३८० ई. में समुद्रगुप्त का सुयोग्य पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय राज्य सिंहासन पर बैठा। उसने ध्रुवदेवी एवं नागराजा की पुत्री कुबेरनाग से विवाह किया। अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक शासक रूद्रसेन द्वितीय तथा पुत्र का विवाह कुंतल राजा की पुत्री से किया। चीनी यात्री फाह्यान ने अपनी पुस्तक "फो-को-की" में गुप्तकाल का वर्णन किया है।८
___ सम्राट् कुमारगुप्त के राज्य में ई. सन् ४३२ में श्राविका शामाढ्या ने मथुरा में एक जिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी। लगभग ई. सन् की पांचवीं शती के मध्य गुजरात के वलभीनगर में ध्रुवसेन द्वितीय का शक्तिशाली शासन था। यही राजा मैत्रकवंश का संस्थापक था। ईस्वी सन् ४५३ (मतांतर से ४६६ ई.) में इसी शासक के आश्रय में आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने एक यति सम्मेलन
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