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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
खण्ड : प्रथम
खण्ड:-प्रथम
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भारतीय संस्कृति में ध्यान की परम्परा
भारतीय ऋषियों, दार्शनिकों और चिन्तकों का लक्ष्य स्थूल जीवन का निदर्शन कभी नहीं रहा। उन्होंने जीवन की सूक्ष्मतम, अतल गहराइयों में अपनी प्रज्ञा के सहारे प्रवेश किया, जिसके परिणामस्वरूप अध्यात्म दर्शन अस्तित्व में आया। उन्होंने स्थापित किया कि मात्र देह का संरक्षण, उसका परिपोषण-संवर्द्धन और उससे उत्पन्न सुख ही परम सत्य नहीं है। उन्होंने देह में सन्निविष्ट आत्मतत्त्व की गरिमा का साक्षात्कार कर उसकी महिमा प्रकट की।
आत्ममूलक चिन्तनधारा जब शाश्वत कर्मधारा के साथ संयुक्त हो जाती है तब जीवन में उस तत्त्व की निष्पत्ति होती है जिसे संस्कृति कहा जाता है। भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ
संस्कृति का विकास जीवनदृष्टि के आधार पर होता है। भारत में भोगमूलक और त्यागमूलक जीवनदृष्टियों के आधार पर क्रमश: दो संस्कृतियों वैदिक और श्रमण का विकास हुआ। वैदिक धारा भोगमूलक प्रवृत्ति मार्ग की संपोषक रही है जबकि श्रमण धारा त्यागमूलक निवृत्तिपरक साधना पर बल देती रही है। इन दोनों धाराओं का सुन्दर विवेचन डॉ. सागरमल जैन ने अपने लेख 'श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव' में किया है। उसी आधार पर यहाँ इन दोनों धाराओं के विकास और उनके धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक प्रदेयों की तालिका प्रस्तुत है जो इनकी दृष्टि-भिन्नता को सिद्ध करती है। .
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