________________
8 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
हैं कि परवर्तीकाल में तपागच्छ की जो परम्परा विकसित हुई है, वह भी कोटिकगण की वज्रीशाखा से ही विकसित हुई है। खरतरगच्छ और तपागच्छ-दोनों ही एक ही परम्परा की दो शाखाएँ हैं, फिर भी खरतरगच्छ पूर्ववर्ती है और तपागच्छ परवर्ती, अतः इतना निश्चित है कि संवेगरंगशाला के कर्त्ता जिनचन्द्रसूरि का निकट सम्बन्ध तो खरतरगच्छ की परम्परा से ही है, क्योंकि जिनचन्द्रसूरि के शिष्य जिनदत्तसूरि के काल से यह परम्परा खरतरगच्छ के नाम से अभिहित होती प्रतीत होती है। संवेगरंगशाला की प्रशस्ति में भी संवेगरंगशाला को जिनदत्तसूरि के द्वारा सं. ११२५ में लिपिबद्ध किया जाना उल्लेखित है, अतः संवेगरंगशाला को खरतरगच्छ की परम्परा से ही सम्बद्ध मानना होगा। यह भी स्पष्ट है कि वह चैत्यवासी - परम्पराओं से भिन्न सुविहित-मार्ग या संविग्नपक्ष के आचार्य जिनचन्द्रसूरि द्वारा रचित है और संविग्नपक्ष का प्रथम गच्छ तो खरतरगच्छ ही है, अतः संवेगरंगशाला के लेखक को तपागच्छीय कहना तो बिल्कुल उचित नहीं है। चाहे वे तपागच्छीय-परम्परा के भी पूर्वपुरुष माने जाएं, किन्तु इस आधार पर उन्हें तपागच्छीय नहीं कहा जा सकता है। यदि ऐसा होगा, तो फिर लोग अपने पूर्वपुरुष के रूप में महावीर को भी श्वेताम्बर या दिगम्बर या खरतरगच्छीय या तपागच्छीय कहने लगेंगे।
सत्य तो यह है कि जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशाला की रचना स्वयं अभयदेवसूरि की प्रेरणा से की थी। उन्होंने ऐसा उल्लेख संवेगरंगशाला की ग्रन्थ-प्रशस्ति में किया है। अभयदेवसूरि ने अपनी नवांगी वृत्तियों में अपने गुरुभ्राता जिनचन्द्रसूरि का तो कोई उल्लेख नहीं किया, लेकिन इतना अवश्य बताया है कि वे जिनेश्वरसूरि के प्रशिष्य और बुद्धिसागरसूरि के शिष्य हैं। अभयदेवसूरि के गच्छ को लेकर विवादास्पद स्थिति रही, किन्तु उनकी गुरु-परम्परा के सम्बन्ध में इतना सुनिश्चित है कि वे वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि के वरिष्ठ गुरुभ्राता बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे। बुद्धिसागरसूरि के दो शिष्य थे अभयदेवसूरि और जिनचन्द्रसूरि । अतः जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि के गुरुभ्राता होने में कोई संदेह नही । अभयदेवसूरि ने आगमों की अपनी टीका की ग्रन्थ प्रशस्ति में अपने को संविग्नविहारी कहा है। जहाँ तक वर्धमानसूरि के गच्छ का प्रश्न है, निश्चित रूप से उनके काल तक कोई भी गच्छ अस्तित्व में नही था । वे स्वयं अपने को चन्द्रकुल का कहते हैं। नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि भी चन्द्रकुल के ही सिद्ध होते हैं। इन वृत्तियों के निवृत्ति कुल के आचार्य द्रोण के द्वारा संशोधित होने का भी उल्लेख हुआ है। यह बात चाहे विवादास्पद भी हो खरतरगच्छ की उत्पत्ति कब हुई ? किन्तु इतना निर्विवाद सिद्ध है कि वर्धमानसूरि ने चैत्यवाद का परित्याग करके संविग्नपक्ष की स्थापना की थी । अभयदेवसूरि के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org