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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /7
में दीक्षित हुए थे, किन्तु अपने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार को देखकर जगत्चन्द्र ने चैत्रगच्छीय आचार्य धनेश्वरसूरि के प्रशिष्य भुवनचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रगणि के पास पुनः दीक्षा ग्रहण की और बारह वर्षों तक निरन्तर आयंबिल-तप किया, जिससे प्रभावित होकर आघाटपुर के शासक जेत्रसिंह ने उन्हें विक्रम संवत् १२८५ में, अर्थात् ई.स. १२२६ में, तपा-विरूद्ध प्रदान किया। इसी आधार पर उनकी शिष्य-परम्परा तपागच्छीय कहलाई। चैत्रगच्छीय धनेश्वरसूरि, उनके प्रशिष्य देवभद्रगणि खरतरगच्छीय धनेश्वरसूरि और देवभद्रगणि से भिन्न थे। जहाँ खरतरगच्छ का प्रारम्भ दुर्लभराज की सभा में जिनेश्वरसूरि को 'खरतर विरुद' देने के कारण हुआ वही तपागच्छ का प्रादुर्भाव जैत्रसिंह के द्वारा जगत्चन्द्रसूरि को 'तपा विरुद' देने के कारण हुआ। यह तो सुस्पष्ट है कि जहाँ खरतरगच्छ का आविर्भाव वि.सं. १०८० में हुआ, वहीं तपागच्छ का आविर्भाव वि.सं. १२८५ में हुआ, अतः दोनो गच्छों के उद्भवकाल में २०० वर्ष का अन्तर है। अभयदेवसूरि
और उनके गुरुभ्राता जिनचन्द्रसूरि को चाहे तपागच्छीय आचार्य अपना पूर्वपुरुष माने, किन्तु यह तो स्पष्ट है कि वे स्वयं तपागच्छीय नहीं हैं, क्योंकि तपागच्छ का प्रादुर्भाव उनके काल से भी लगभग १५० वर्ष पश्चात् हुआ। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि जिनेश्वरसूरि के गुरुभ्राता बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे और लगभग जिनेश्वरसूरि के समसामयिक ही थे। जिनेश्वरसूरि ने वि.सं. ११०८ में कथाकोश-प्रकरण की स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखी, अतः जिनेश्वसूरि वि.सं ११०८ के बाद ही कभी स्वर्गवासी हुए। बुद्धिसागरसूरि उनके लघुभ्राता थे, अतः बुद्धिसागरसूरि के जीवनकाल में ही जिनेश्वरसूरि को 'खरतर विरुद' मिल गया होगा, किन्तु उस विरुद के कारण खरतरगच्छ नाम तो उनकी शिष्य-परम्परा से बाद में ही प्रचलित हुआ होगा। यह सत्य है कि जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशाला की प्रशस्ति में और अभयदेवसूरि ने अपने आगमों की टीका में कहीं पर भी अपने को खरतरगच्छीय नहीं बताया है। सर्वत्र ही अपने को सुविहित मुनिजन, मुख्य जिनेश्वर आचार्य के अनुज बुद्धिसागर आचार्य का शिष्य कहा है। अभयदेव ने अपनी समवायांग की वृत्ति में भी अपनी गुरु परम्परा को वर्धमानसूरि से प्रारम्भ करके जिनेश्वसूरि और उनके अनुज बुद्धिसागरसूरि का उल्लेख किया है
और अपने को बुद्धिसागरसूरि का शिष्य बताया है। समवायांग की इस टीका का काल वि.सं. ११२० उल्लेखित है। इससे ऐसा लगता है कि जिनेश्वरसूरि की शिष्य-परम्परा इसके पश्चात् जिनचन्द्र के शिष्य जिनदत्त के काल से ही खरतरगच्छ के नाम से ही अभिहित हुई है। फिर भी, इतना निश्चित है कि जिनचन्द्रसूरि खरतरगच्छ-परम्परा के निकटवर्ती पूर्व पुरुष हैं। उन्हें किसी भी स्थिति में तपागच्छीय सिद्ध नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य कह सकते
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