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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 5
है कि जिनेश्वरसूरि ने अपने लघुभ्राता बुद्धिसागरसूरि के इन दोनों ही शिष्यों को योग्य जानकर आगे चलकर आचार्य पद प्रदान किया होगा। जिनचन्द्रसूरि के गुरु बुद्धिसागरसूरि पारिवारिक दृष्टि से और दीक्षा - गुरु की अपेक्षा से, अर्थात् दोनों ही दृष्टियों से जिनेश्वरसूरि के अनुज थे। ऐसा भी कहा जाता है कि अणहिलपुर-पट्टन के चैत्यवासियों के साथ हुए वाद-विवाद में जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि- इन दोनों भाइयों ने भाग लिया था। प्रभावकचरित्र के अनुसार उस वाद-विवाद के समय ये दोनों गुरुभ्राता वर्धमानसूरि के द्वारा आचार्य - पद पर प्रतिष्ठित थे। यद्यपि उपाध्याय जिनपाल के अनुसार अणहिलपुरपत्तन के वाद-विवाद में विजयी होने के पश्चात् ही जिनेश्वरसूरि ने बुद्धिसागर को आचार्य - पद और उनकी बहन आर्या कल्याणमति को महत्तरा - पद प्रदान किया था । जिनचन्द्रसूरि के गुरू बुद्धिसागरसूरि स्वयं भी एक विद्वान आचार्य थे। श्वेताम्बर-परम्परा में उनका संस्कृत - व्याकरण 'पंचग्रन्थी' एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। इसका अपर नाम बुद्धिसागरव्याकरण और शब्दलक्ष्म भी है। जिनचन्द्रसूरि के गुरुभ्राताओं में सूरसुन्दरीचरित्र के रचनाकार धनेश्वरसूरि तथा नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि- दोनों भी प्राकृत भाषा और आगम - साहित्य के मर्मज्ञ
थे।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि विक्रम संवत् की १२ वी शताब्दी में अभयदेवसूरि नाम के तीन आचार्य हुए हैं। इनमें बुद्धिसागरसूरि के शिष्य नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के अतिरिक्त दूसरे जो दो अभयदेवसूरि हैं, उनमें एक राजगच्छीय प्रद्युम्नसूरि के शिष्य एवं महार्णवटीका के रचयिता अभयदेवसूरि हैं और दूसरे हर्षपुरीयगच्छ के जयसिंहसूरि के शिष्य मलधारी अभयदेवसूरि हैं। आचार्य जिनचन्द्रसूरि के धर्म - परिवार में सुमतिवाचक के शिष्य देवभद्रसूरि भी हुए हैं, जिन्होंने प्रसन्नचन्द्रसूरि की अभ्यर्थना पर जिनचन्द्रसूरि द्वारा विक्रम संवत् ११२५ में रचित संवेगरंगशाला को संशोधित किया था। इससे ऐसा लगता है कि देवभद्र भी जिनचन्द्रसूरि के समकालीन ही थे। संवेगरंगशाला की प्रशस्ति के उल्लेख के अनुसार जिनचन्द्रसूरि के विनेय प्रसन्नचन्द्रसूरि की प्रार्थना पर सुमतिवाचक के शिष्य तथा कथारत्नकोश के रचयिता इन्हीं देवभद्रसूरि ने ११३६ में संवेगरंगशाला का संशोधन किया था। ज्ञातव्य है कि सुमतिवाचक भी जिनचन्द्रसूरि के समकालीन ही थे। सुमतिवाचक को जिनेश्वरसूरि का ही शिष्य बताया जाता है। इस प्रकार अभयदेव, प्रसन्नचन्द्र, सुमतिवाचक, धनेश्वरसूरि, देवभद्रसूरि, जिनदत्तसूरि, आदि जिनचन्द्रसूरि के धर्म-परिवार से सम्बन्धित रहे हैं। जिनचन्द्रसूरि का यह धर्म-परिवार वस्तुतः विद्वज्जनों का परिवार था और वे सब बौद्धिक - कार्यों में परस्पर सहयोग भी करते थे।
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