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ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
क्रम और व्यतिरेक के स्वरूप पर कुछ प्रकाश द्रव्य जैसे स्वभाव से स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वभाव से प्रति समय परिणमन भी किया करता है। जैसे एक जीव है। वह परिणामन करके मनुष्य से देव हुआ। अब यह जीव वही है जो पहले था इसको 'तथात्व' कहते हैं और मनुष्य से देव हुआ इसलिये जो पहले था वह नहीं है इसको अन्यथात्व' कहते हैं। अब प्रत्येक समय परिणमन करना इसको क्रम कहते हैं क्योंकि वह परिणमन कम से होता है। दो परिणमन एक साथ नहीं होते। अतः प्रत्येक समय की पर्याय कोक्रमवर्ती कहते हैं। यद्यपि क्रम में तथात्व तथा अन्यथात्व दोनों अवश्य होते हैं परकमवर्ती लक्षण में तथात्व अन्यथाव पर दृष्टि नहीं है, क्रम परिणमन के प्रवाह पर दृष्टि है। अब उस क्रम में जो पहले समय की पर्याय है वह पहले समय की ही है दूसरे समय की नहीं है और जो दूसरे समय की है वह पहले समय की नहीं है दूसरी-दूसरी ही है यह जो उनमें परस्पर अभाव है इसको व्यतिरेकी कहते हैं। इसमें तथात्व अन्यथात्व पर ही दष्टि है। परस्पर अभाव इसका लक्षण है। क्रमको स्थूल कहते हैं। पहले समय की पर्याय से दूसरे समय की पर्याय में क्या अन्यथात्व है।वह सूक्ष्म है अतः व्यतिरेकी को सूक्षम कहते हैं। दूसरे जो भी क्रमवर्ती परिणमन होगा वह व्यतिरेकीपने को लिये हुये अवश्य होगा। इसलिये क्रम
और व्यतिरेकी एक समय में होने पर भी पहले क्रम फिर व्यतिरेकी क्योंकि पहले बदले तभी तो कहें कि यह वहीं है दूसरी नहीं है। दूसरा दूसरा ही है पहला नहीं है। अतः क्रम व्यतिरेक पुरस्सर ही होता है और व्यतिरेक विशिष्ट ही होता है। । यद्यपि क्रमवर्ती भी पर्याय को कहते हैं और व्यतिरेकी भी पर्याय को कहते हैं फिर भी उनमें यह अन्तर है। (१) क्रमवती स्थूल है। व्यतिरेकी सूक्ष्म है। (२) क्रम का लक्षण'क्रम-क्रम से वर्तना' है और व्यतिरेकी का लक्षण 'परस्पर अभाव है। (३) क्रम में तथात्व अन्यथात्व की विवक्षा नहीं है जब कि व्यतिरेकी में तथात्व अन्यथात्व की विवक्षा है।(४) जैसे स्थूल पर्यायों में स्थूल पर्यायें अन्तर्लीन रहती है वैसे क्रम में व्यतिरेक अन्तलीन रहता है। मनुष्य देव इनको स्थूल पर्यायें कहते हैं और एक ही मनुष्य पर्याय में समय-समय जो ज्ञानादि का परिणमन हो रहा है उसको सूक्ष्म पर्याय कहते हैं । यह परिणमन मनुष्य पर्याय के अन्तलीन है। मनुष्य से देव होना इसको क्रमवर्ती कहते हैं क्योंकि यह कम से होती हैं एक साथ नहीं। और मनुष्य रूप विष्कम्भ-विस्तार एक बड़ी चौड़ी पर्याय में जो प्रत्येक समय के परिणमन में परस्पर सूक्ष्म अभावपना है वह व्यतिरंकीपना है। इस प्रकार व्यतिरेक क्रम के अन्तलींन है व्यतिरेकीपने में कुछ नये सत् अंश आ नहीं जाते और पहले सत् अंश कहीं चले नहीं जाते। उतने के उतने ही रहते हैं। केवल सब के सब सत् अंशों का रूपान्तर-भावान्तर-भूत्वाभवन हुआ करता है जैसे मनुष्य और देव दोनों में असंख्यता प्रदेश तो वही के वही बराबर हैं पर मनुष्य की आकृति से देव की आकृति रूप हो गये हैं । इस कारण व्यतिरेकीपना आया है। ज्ञान के केवल ज्ञान और मतिज्ञान में सत् अंश तो वही है केवल लोकालोक-आकार और घटाकार की अपेक्षा व्यतिरेकीपना है। सार बात यह है कि व्यतिरेक में परस्पर भिन्नता पर ही दृष्टि है और क्रमवर्ती में क्रमबद्ध परिणमन पर ही दृष्टि है। यह व्यतिरेकी और क्रमवर्ती के अन्तर को जानने की चाबी है।
नोट-पहले १४७ से १५२ तक व्यतिरेक को समझाया, फिर १६७ से १६९ तक क्रमवर्ती को समझाया, फिर १७० से १७५ तक व्यतिरेक और क्रम के अन्तर को समझाया, अब क्रम और व्यतिरेक दोनों के स्वरूप को विशेष स्पष्ट करने के लिये शंका समाधानों द्वारा इसी को पीसते हैं।
शंका
ननु तत्र किं प्रमाण क्रमस्य साध्ये तदन्यथात्वे हि ।
सोऽयं, यःपाक, स तथा यथेति यः प्राक तु निश्चयादिति चेत् ॥ १७६॥ अर्थ-क्रम की सिद्धि में और क्रम में पाये जाने वाले अन्यथात्व अर्थात् व्यतिरेक की सिद्धि में क्या प्रमाण है क्योंकि जो पहले था सो ही यह है अथवा जैसा पहले था वैसा ही है? ( अर्थात् शंकाकार क्रम और व्यतिरेक दोनों की सिद्धि चाहता है।