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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
३२९ अर्थ-आत्मा के संसार अवस्था में आवरण सहित ज्ञान और सुख होता है तथा सिद्ध में वह ज्ञान और सुख निरावरण (क्षायिक) होता है।
कर्मणां विमुक्तौ तु नूनं नात्मगुणक्षतिः ।
प्रत्युतातीत नैर्मल्यं पङ्कापाये जलादिवत् ।। ११३२॥ अर्थ-कर्मों के नाश होने पर निश्चय से आत्मा के गुण का नाश नहीं होता है उलटी अत्यन्त निर्मलता ( प्रगट हो जाती है) जैसे कीचड़ के नाश होने पर जल आदि निर्मल हो जाते हैं।
भावार्थ-शिष्य यह कल रहा था कि शरीरादिक के अभाव में सिद्ध के सुख ही नहीं होता। उसे समझाते हैं कि उलटा अधिक होता है। कर्मों के नाश होने पर मूल द्रव्य या उसका गुण नाश नहीं होता उलटा गुण की पूर्ण प्रगटता हो जाती है। जैसे कीचड़ के नाश से पानी या उसकी निर्मलता का नाश नहीं किन्तु वह निर्मलता पूर्ण प्रकट हो जाती है। कीटादि के नाश से सोने का या उसके पीलेपन का नाश नहीं किन्तु वह पीलापनपूर्ण प्रकट हो जाता है। यह लिखने का कारण यह कि नैयायिकादिकायह कहना है कि आत्मा के २१ गणों का नाश होना ही मोक्ष है।यह उनकी अज्ञानता है। गुण के नाश होने पर तो मूल द्रव्य का अस्तित्व ही नाश हो जायेगा। सो गुण का नाश मोक्ष नहीं किन्तु उस की प्रकटता का नाम मोक्ष है। सोई समझाते हैं।
अरित कर्ममलायाये विकारक्षतिरात्मनः।
विकारः कर्मजो भाव: कादाचित्क: स पर्ययः ॥ ११३३॥ अर्थ-कर्म मल का नाश हो जाने पर आत्मा के विकार का नाश हो जाता है क्योंकि वह विकार कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला भाव है और अनित्य है, क्षणिक पर्याय है ( गुण नहीं है)।
भावार्थ-फिर भी कोई यह कहे कि नहीं आत्मा के गुणों का नाश ही मोक्ष है देखो राग आत्मा में है। उसका नाश होता है तो कहते हैं कि राग पूल द्रव्य या उसका कोई गुण नहीं है वह तो मूल जीव द्रव्य के चारित्र गुण का विकारविभाव-विपरीत परिणमन है वह बदल कर स्वभाव परिणमन अर्थात् वीतरागता प्रगट हो जाती है। चारित्र गुण नाश नहीं हुआ उलटा विकार निकल कर निर्मल हो गया। अतः भाई विकार का नाश होना तो जरूर मोक्ष है पर गुण का नाश होना मोक्ष नहीं है। गुण तो नित्य पदार्थ है उसके नाश होने पर शन्यता का प्रसंग आयेगा। विकार को नाश होता
नाश का भ्रम नहीं करना चाहिये किन्तु उसके प्रकट होने वाले अनन्त स्वभाव पर दष्टि जानी चाहिए। वास्तव में द्रव्य गुण पर्याय के ज्ञान बिना निःशल्यता नहीं आती। भ्रम बना ही रहता है।
जष्टे चाशुद्धपर्याये मा भूद् शान्तिर्गुणव्यये ।
ज्ञानानन्दत्वमस्योच्चैनिय॑त्वात् परमात्मनि ॥ ११३४ ॥ अर्थ-और अशुद्ध पर्याय के नाश होने पर गुण के नाश में भ्रान्ति नहीं होनी चाहिये क्योंकि गुण के नित्य होने से सिद्ध में उत्कृष्ट (पूर्ण) झान और आनन्दपना प्रकट है।
दृषदादिमलापाये यथा पावकयोगालः ।
पीतत्वादिगुणाभावो न स्यात्कार्तस्वरोऽस्ति चेत् ॥ ११३५ ॥ अर्थ-जैसे यदि सोना है तो अग्नि के संयोग से पत्थर आदि मल के नाश होने पर पीतत्त्व आदि गुण का अभाव नहीं हो जाता उलटा वह अत्यन्त निर्मल हो जाता है।
एकविंशतिदुःरवानां मोक्षो निर्मोक्षलक्षणः ।
इत्येके सदसजीवगुणानां शूल्यसाधनात् ॥ ११३८ । अर्थ-'इक्कीस दुःखों (गुणों) का सर्वथा अभाव लक्षण मोक्ष है' ऐसा कोई मानते हैं। वह झूठ है ( क्योंकि ) जीव के गुणों का अभाव मानने से शून्य सिद्ध होगा (अर्थात् जीव के अभाव का प्रसंग आवेगा)।
भावार्थ-नैयायिकदर्शन आत्मा में २१ गुण मानता है। उन्हें दुःख कहता है और उनका नाश मोक्ष कहता है। उसका यहाँ खण्डन किया है कि वैसा मानने पर सत् द्रव्य के नाश से शून्यता का प्रसंग आयेगा। इस पर नैयायिक कहता है कि यदि गुण की प्रकटता को मोक्ष कहोगे तो सिद्ध में अनन्त दुःख सिद्ध हो जायेगा सो उसे समझाते हैं कि सुख
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