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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
श्रीअमितगतिश्रावकाचार में कहा है विधीयमानाः शमशीलसंयमाः श्रियं ममेमे वितरंतु चिंतिताम् । सांसारिकानेकसुरवप्रवर्द्धिनी
निःकांक्षितो नेति करोति कांक्षणाम ॥ ७४॥ सुत्रार्थ- ये उपशमशील संयम है।करे भय संसारिक अनेक सुखनिकी बढ़ाने वाली लक्ष्मीकाँ मेरे विस्तारह ऐसी वांछा, नि:कांक्षित पुरुष है सो न करै है। अर्थात् कर्म के फल की वांछा त्यागिये सो नि:कांक्षित अंग जानना।
सातवां अवान्तर अधिकार निर्विचिकित्स अंग सूत्र १३४५ से १३५५ तक ११ अथ निर्विचिकित्सारख्यो गुणः संलक्ष्यते स यः।
सद्दर्शनगुणस्योच्चैर्गुणो युक्तिवशादपि || १३५५ ॥ सूत्रार्थ - अब जो निर्विचिकित्स नाम का गुण है वह भले प्रकार लक्षित किया जाता है। जो युक्ति वश से भी सम्यग्दर्शन गुण का महान् गुण ( अंग) है।
आत्मन्यात्मगुणोत्कर्षबुद्भया स्वात्मप्रशंसनात् ।
परबाप्यापकर्षेषु बुद्धिर्विचिकित्सता मता || १३४६ ।। सूत्रार्थ - अपने में अपने गुणों के उत्कर्ष को दिखाने की बुद्धि से अपनी आत्मा की प्रशंसा करने से दूसरे में गुणों के अपकर्ष को दिखाने की बुद्धि विचिकित्सा मानी गई है।
निष्क्रान्तो विचिकित्साया: प्रोक्तो निर्विचिकित्सकः ।
गुणः सद्दर्शनस्योच्यैर्वक्ष्ये तल्लक्षणं यथा ॥ १३५७ ॥ सूत्रार्थ - विचिकित्सा से जो रहितपना है वह निर्विचिकित्सक कहा गया है। वह सम्यग्दर्शन का महान गुण है। उसका लक्षण कहूंगा वह इस प्रकार है:
दुर्दैवाददुःरिवते पुसि तीबासाताघृणास्पटे ।
यजासूयापरं चेतः स्मृतो निर्विचिकित्सकः ॥ १३४८॥ सूत्रार्थ - खोटे भाग्य से तीन असाता से घृणा के स्थान दुःखित पुरुष में जो घृणातत्पर चित्त का नहीं होना है यह निर्विचिकित्सक गुण माना गया है।
जैतत्तन्मनस्यज्ञानमरम्यहं सम्पदा पदम् ।
नासावस्मत्समो टीनो बराको विपदां पदम् ॥ १३५९॥ वार्थ- उस (निर्विचिकित्सक अंग वाले सम्यग्दष्टि) के मन में यह अज्ञान नहीं है कि मैं सम्पत्तियों का स्थान हूँ और वह दीन गरीब मेरे समान नहीं है, किन्तु विपत्तियों का स्थान है।
प्रत्युत ज्ञानमेवैतत्तत्र कर्म वियाकजाः |
प्राणिनः सदृशाः सर्वे त्रसस्थावरयोनयः || १३५० ।। सूत्रार्थ - उलटा उस (निर्विचिकित्सक गुण वाले सम्यग्दृष्टि) में यह ही ज्ञान है कि कर्म के उदय से उत्पन्न त्रस और स्थावर योनिवाले सब प्राणी बराबर हैं।
यथा द्वावर्भको जातौ शूद्रिकायास्तथोदरात् ।
शूद्रावधान्तितस्तौ द्वौ कृतो भेदो अमात्मना ॥ १३५१॥ सूत्रार्थ - जैसे शूद्री के पेट से दो बच्चे उत्पन्न हुए। वे दोनों ही बच्चे भ्रान्ति रहित शुद्र है। भ्रमात्मकपने से भेद किया जाता है।
प्रमाण - (श्रीसमयसार कलश नं. १०१)। जले जम्बालवज्जीवे यावत्कर्माशुचि स्फुटम् ।
अहं ते चाविशेषाद्वा नूनं कर्ममलीमसाः ॥ १३५२ ॥ सूत्रार्थ-जल में काई की तरह प्रगट जीव में जो कुछ अपवित्र कर्म है,मैं और वे सब जीव सामान्य रूप से निश्चय से कर्मों से मलीन है।