Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 553
________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अन्वयार्थं असिद्धत्व वास्तव में औदयिक भाव है क्योंकि भिन्न-भिन्न अथवा मिलकर आठों कर्मों के उदय से उत्पन्न हुआ है [ जब तक आठों कर्मों का उदय है तब तक तो असिद्धत्व भाव है ही किन्तु इनमें से कुछ कर्मों का उदय रहने पर भी असिद्धत्व भाव होता है इसलिये सब कर्मों का या अलग-अलग प्रत्येक कर्म का कार्य असिद्धत्व भाव बतलाया है ] । ५३४ - भावार्थ सिद्ध शब्द का अर्थ निष्पन्न है। जब तक कोई भी वस्तु अनिष्पन्न होती है तब तक वह असिद्ध कहलाती है। असिद्धता प्रत्येक संसारी जीव में मौजूद है। जो अत्यन्त अविकसित अवस्था में हैं - वे तो अनिष्पन्न हैं ही किन्तु जिन्होंने विकारों पर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर ली है। जो अरहन्त अवस्था को प्राप्त हो गये हैं उन्हें भी पूर्ण निष्पत्र नहीं माना जाता क्योंकि उस अवस्था में भी कुछ न्यूनता है। मिथ्यादृष्टि के आठों कर्मों का उदय रहता है इसलिये वह असिद्ध कहा जाता है और आगे-आगे के गुणस्थानों में यद्यपि क्रम २ से कुछ कम कर्मों का भी हृदय रहता है तब भी यह जीव मुक्त न कहलाकर असिद्ध ही कहलाता है। यहाँ तक कि चौदहवें गुणस्थान तक भी असिद्ध (संसारी ) कहा जाता है। इसलिये व्यस्त किंवा समस्त रूप से आठों कर्मों के उदय से उत्पन्न होने के कारण यह असिद्धत्व भाव भी औदयिक भाव कहा जाता है । सिद्धत्व भाव का लक्षण सिद्धत्वं कृत्स्नकर्मभ्यः पुंसोऽवस्थान्तरं पृथक् । ज्ञानदर्शनसम्यक्त्ववीर्याद्यष्टगुणात्मकम् ॥। १९०७ ॥ अन्वयः - सिद्धत्वं पुंसः कृत्स्नकर्मभ्यः पृथक् ज्ञानदर्शन- सम्यक्त्ववीर्याद्यष्टगुणात्मकं अवस्थान्तरं [ अस्ति ]। अन्वयार्थ - सिद्धत्व पुरुष [ आत्मा ] की सम्पूर्ण कर्मों से पृथक् [ जुदा ]ज्ञान दर्शन सम्यक्च वीर्य आदि [ सूक्ष्मत्व, अव्या बाध अवगाह और अगुरुलघु ] आठ गुणों की प्रगटता स्वरूप अवस्थान्तर [ शुद्ध दशा ] है । भावार्थ सिद्ध दशा को सिद्धत्व भाव कहते हैं और आत्मा में किसी जाति के भी विकार के अस्तित्त्व को असिद्धत्व भाव कहते हैं अर्थात् पहले से चौदहवें गुणस्थान की अवस्था तक असिद्धत्व भाव रहता है फिर सिद्धत्व भाव की प्रगटता होती है। वह क्या है तो इसका उत्तर यही है कि आठ कर्मों के निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध से जो आत्मा के आठ गुण विकारी हो रहे हैं उनका पूर्ण शुद्ध हो जाना सिद्धत्व भाव है अर्थात् आत्मा के अनन्त अनुजीवी तथा प्रतिजीवी गुणों की प्रगटता स्वरूप जीवास्तिकाय की सर्वथा शुद्ध आकाशवत् निर्लेप अवस्था का नाम सिद्धत्व भाव है। सिद्धत्व भाव पूर्ण अखण्ड क्षायिक भाव है। पर्याय है। - असिद्धत्व भाव की हेयता नेदं सिद्धत्वमत्रेति स्थादसिद्धत्वमर्थतः । यावत्संसारसर्वस्वं महानर्थास्पदं परम् ॥ १९०८ ॥ अन्वयः - अत्र इदं सिद्धत्वं न इति असिद्धत्वं स्यात् । अतः यावत्संसारसर्वस्वं परं महानर्थास्पदं । अन्वयार्थ - (अत्र ) यहाँ संसार अवस्था में ( इदं सिद्धत्वं न ) यह उक्त सिद्धत्व भाव नहीं होता है [ इति ] इस कारण से [ असिद्धत्वं स्यात् ] यह असिद्धत्व कहलाता है । ( अर्थतः ] वास्तव में [ यावत्संसारसर्वस्वं ] जितना संसार सर्वस्व है वह सब [ परं ] केवल [ महानर्थास्पदं] महा अनर्थ की जड़ है। भावार्थ - ऊपर की पंक्ति का तो यह अर्थ है कि सिद्धत्व आत्मा को अष्ट कर्म रहित अष्ट गुणसहित पूर्व सूत्र में वर्णित शुद्ध अवस्था [ पर्याय ] है जब तक आत्मा इस अवस्था को प्राप्त न कर ले तब तक इसके असिद्धत्व भाव ही बना रहता है। इसलिये असिद्धत्व भाव चौदहवें गुणस्थान तक है। दूसरी पंक्ति में इसका कारण बतलाया है कि यह असिद्धत्व भाव चौदहवें तक क्यों बना रहता है तो उत्तर में समझाते हैं कि जितनी मात्रा में भी आत्मा में संसारत्व है असिद्धत्व है किसी भी प्रकार का विकार है- चाहे वह केवल योगजनित ही क्यों न हो या प्रतिजीवी गुणों का ही विपरीत परिणमन क्यों न हो इस आत्मा के लिये सब महा अनर्थ

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