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द्वितीय खण्ड / सातवीं पुस्तक
प्रश्न २८५ - क्षायोपशमिक भाव किसे कहते हैं और इसके कितने भेद हैं ?
उत्तर
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स्वभाव परिणमन है। सादि सान्त भाव हैं। औपशमिक सम्यक्त्व तो चौथे से सातवें तक रह सकता है और पूर्ण औपशमिक चारित्र ग्यारहवें गुणस्थान में होता है।
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उत्तर -
प्रश्न २८६ औदयिक भाव किसे कहते हैं और इसके कितने भेद हैं तथा उनमें किस-किस कर्म का निमित्त है ? कर्म के उदय को अनुसरण करके होनेवाले भाव को औदयिक भाव कहते हैं। इसके २१ भेद हैं । ४ गति भाव, ४ कषाय भाव, ३ लिङ्ग भाव, १ मिथ्यादर्शन भाव, १ अज्ञान भाव १ असंयम भाव, १ असिद्धत्व भाव, ६ लेश्या भाव। गति भाव में गति नामा नाम कर्म के उदय का सहचर दर्शनमोह तथा चारित्रमोह का उदय निमित्त है । कषाय, लिङ्ग असंयम इनमें चारित्रमोह का उदय निमित्त है। अज्ञान भाव में ज्ञानावरण का उदय अंश निमित्त है। मिथ्यादर्शन में दर्शनमोह का उदय निमित्त है। असिद्धत्व भाव में आठों कर्मों का उदय निमित्त है। लेश्या भाव है योग का सहचर और मोहनीय निमित्त है। ये सब दुःखरूप हैं । अज्ञान भाव बंध का कारण नहीं है- शेष सब बन्ध के कारण हैं। आत्मा का बुरा इन औदयिक भावों से ही है। ये आत्मा के एक समय के परिणमन रूप भाव हैं। पर्यायें हैं। सब क्षणिक नाशवान हैं। सादि सान्त हैं।
प्रश्न २८७ पारिणामिक भाव किसे कहते हैं और इसके कितने भेद हैं ?
उत्तर -
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कर्म में क्षयोपशम को अनुसरण करके होनेवाले भाव को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। इसके १८ भेद हैं । ४ ज्ञान [मति श्रुत, अवधि और मनः पर्यय ], ३ अज्ञान [ कुमति, कुश्रुत, विभंग ], ३ दर्शन [ चक्षुः अचक्षु, अवधि ], ५ क्षायोपशमिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ], १ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, १ क्षायोपशमिक चारित्र, १ संयमासंयम ये आत्मा के १८ पर्यायों के नाम हैं। सादि सान्त भाव हैं। इनमें ४ ज्ञान और ३ अज्ञान तो ज्ञान गुण की एक समय की पर्यायें हैं । ३ दर्शन-दर्शन गुण की एक समय की पर्याय हैं । दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ये आत्मा में ५ स्वतन्त्र गुण हैं। प्रत्येक भाव अपने-अपने गुण की एक समय की पर्याय है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व श्रद्धा गुण की एक समय की स्वभाव पर्याय है। क्षायोपशमिक संयम और संयमा-संयम चारित्र गुण की एक समय की आंशिक स्वभाव पर्याय है । ४ ज्ञान तो चौथे से बारहवें तक पाये जाते हैं । ३ अज्ञान पहले तीन गुणस्थानों में हैं। ३ दर्शन और ५ दानादिक पहले से बारहवें तक पाये जाते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चौथे से सातवें तक पाया जाता है। क्षायोपशमिक चारित्र छठे से दसवें तक है और संयमासंयम केवल एक पाँचवें गुणस्थान में पाया जाता है।
जो भाव कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम या उदय की अपेक्षा न रखता हुआ जीव का स्वभाव मात्र होउसको पारिणामिक भाव कहते हैं। इसके ३ भेद हैं । १ - जीवत्व, २- भव्यत्व, ३ अभव्यत्व । जीवत्व भाव द्रव्यरूप है। भव्यत्व अभव्यत्व भाव गुण रूप हैं। भव्य जीव में भव्यत्व गुण का सम्यक्त्व होने से पहले अपक्व परिणमन चलता है। चौथे से सिद्ध तक पक्व परिणमन हैं। अभव्य जीव में अभव्यत्व गुण का अभव्यत्व परिणमन होता है। जीवत्व भाव, ज्ञायक भाव, पारिणामिक भाव, परम पारिणामिक भाव, परम पूज्य पञ्चम भाव, कारण शुद्ध पर्याय आदि अनेक नामों से कहा जाता है। यह सब जीवों में है । भव्य अभव्य में से एक जीव में कोई एक होता है। भव्य में भव्यत्व, अभव्य में अभव्यत्व | भव्यत्व अभव्यत्व की अपेक्षा जीव ही मूल में दो प्रकार के हैं। अभव्य संसार रुचि को कभी नहीं छोड़ता है। भव्य स्वकाल की योग्यतानुसार पुरुषार्थं करके संसार रुचि का नाश कर मोक्ष पाता है। पर सब भव्य मोक्ष प्राप्त करें ऐसा नियम नहीं है। जो पुरुषार्थं करता है- वह प्राप्त कर लेता है। योग्यता सब भव्यों में है। अभव्य में पर्यायदृष्टि से योग्यता नहीं है। द्रव्य स्वभाव तो उसका भी मोक्षरूप है।