________________ 540 ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी प्रश्न 288 - कर्म किसे कहते हैं ? वे कितने हैं ? उत्तर- आत्मस्वभाव से प्रतिपक्षी स्वभाव को धारण करने वाले पुद्गल कार्मण स्कन्ध वर्गणाओं को कर्म कहते हैं।वे८ हैं। १-ज्ञानावरण,२-दर्शनावरण, ३-वेदनीय, ४-मोहनीय,५-आयु, ६-नाम ७-गोत्र और ८-अन्तराय। प्रश्न 289 - उस कर्म के मूल भेद कितने हैं और क्यों ? उत्तर - उस कर्म के मूल 2 भेद हैं - 1. घाति कर्म 2. अधाति कर्म। जो अनुजीवी गुणों के घात में निमित्तमात्र कारण हैं-उन्हें घातिकर्म कहते हैं। जो अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त नहीं हैं अथवा आत्मा को परवस्तु के संयोग में निमित्तमात्र कारण हैं-अथवा आत्मा के प्रतिजीवी गुणों के घात में निमित्तमात्र कारण हैं-उन्हें अधाति कर्म कहते हैं। घाति कर्म 4 हैं- १.ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण,३. मोहनीय और 4. अन्तराय। शेष 4 अघाति हैं। प्रश्न 290 - इन कर्मों में उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम में से कौन कौन अवस्था होती हैं। उत्तर - अघाति कर्मों में दो ही अवस्था होती हैं। उदय और क्षय / चौदहवें तक इनका उदय रहता है और चौदहवें के अन्त में अत्यन्त क्षय हो जाता है। ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय की दो ही अवस्था होती हैं। क्षयोपशम और क्षया बारहवें तक इनका क्षयोपशम है और बारहवें के अन्त में क्षय है। मोहनीय में चारों अवस्थायें होती हैं। उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम / प्रश्न 291- किस गुण के तिरोभाव में कौन कर्म निमित्त है ? उत्तर- ज्ञान गुण के तिरोभाव में ज्ञानावरण निमित्त है। निमित्त में ज्ञानावरण की स्वतः दो अवस्था होती हैं-क्षय और क्षयोपशम। उपादान में ज्ञान गुण में स्वतः दो नैमित्तिक अवस्था होती हैं-क्षायिक और क्षायोपशमिक। इसलिए ज्ञानगुण में दो भाव होते हैं अर्थात् ज्ञान गुण का पर्याय में दो प्रकार का परिणमन होता है-क्षायिक परिणमनरूपकेवलज्ञान और क्षायोपशामक परिणमनरूपशेष ४ज्ञान और 3 कज्ञान। [अज्ञान भाव तो औदयिक अंश की अपेक्षा है / इसीप्रकार दर्शनगुण में दर्शनावरण निमित्त है। इस गुण की भी दो अवस्था होती हैं। क्षायिक परिणमन रूप केवल दर्शन, क्षायोपशमिक परिणमन रूप शेष 3 दर्शन / दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यगुण में अन्तराय कर्म निमित्त है। इन गुणों की भी दो अवस्था होती हैं। क्षायिक परिणमन रूप क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य। क्षायोपशमिक परिणमनरूप क्षायोपशमिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य उपरोक्त सब क्षायोपशमिक भाव बारहवें गुणस्थान तक हैं और क्षायिक भाव तेरहवें से प्रारम्भ होकर सिद्ध तक हैं। मोहनीय के 2 भेद हैं। दर्शनमोह और चारित्रमोह। आत्मा के सम्यक्त्व (श्रद्धा) गुण में दर्शनमोह निमित्त है और चारित्र गुण में चारित्रमोह निमित्त है। श्रद्धा गुण की 4 अवस्था होती हैं। पहले, दूसरे तीसरे में इसकी औदयिक अवस्था है। चौथे से सातवें तक प्रथम नम्बर की औपशमिक सम्यक्व अवस्था और आठवें से ग्यारहवें तक दूसरी औपशमिक सम्यक्त्व अवस्था रह सकती है। चौथे से सातवें तक क्षायोपशमिक अवस्था रह सकती है और चौथे से सिद्ध तक क्षायिक अवस्था रह सकती है। दर्शनमोह का उदय मिथ्यात्व भाव में निमित्त है। इसका क्षयोपशम, क्षय तथा उपशम क्रमश: क्षायोपशमिक, क्षायिक और औपशमिक सम्यक्त्व में निमित्त है। चारित्रगुणकी भी 4 अवस्थायें होती हैं। असंयम भाव में चारित्रमोह का उदय निमित्त है। यह भाव पहले चार गुणस्थानों में होता है। उसका क्षय-क्षायिक चारित्र में निमित्त है और बारहवें से ही होता है। इसका उपशम औपशमिक चारित्र में निमित्त है जो संपूर्णग्यारहवें में होता है और इसका क्षायोपशम एक तो संयमासंयम भाव में निमित्त है जो पांचवें में होता है और दूसरे क्षायोपशमिक चारित्र में निमित्त है जो छठे से दसवें तक होता है। समाप्त